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________________ वि० सं० २६०–२८२ वर्ष । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पुरुषों ने अपनी भूल स्वीकार कर जैन दीक्षा धारण कर अपना कल्याण कर लिया तो उन गलत मान्यता के नाम से भ्रम फैलाना हित का कारण नहीं होसकता है । इस बात को सुनकर दूसरे दिन सन्यासीजी ने सूरिजी के व्याख्यान में आकर पूँछा कि आपके धर्म में सृष्टिक्रम अर्थात् स्वर्ग मृत्यु और पाताल को कैसे माना है मैं उसको सुनना एव समझना चहाता हूँ ? । सूरिजी ने सन्यासीजी को समझाया कि नीचे लोक में सात नरक हैं मृत्युलोक में मनुष्य तियेच हैं और ऊर्ध्वलोक में देवता हैं और सम्पूर्ण लोक के अप्रभाग में ईश्वर सिद्ध है। नीचे लोक में सात नरक हैं उनके नाम घमा, बनसा, शीला, अंजना, रिठा, मघा, माघवती इन सात नरकों के गोत्र रत्नप्रभा, शार्करप्रभा, बालुकप्रभ पङ्कप्रभा, धूम्रप्रभा, तमप्रभा और तमस्तम प्रभा; महारंभ महापरिमह की इच्छा पांचेन्द्रियजीवों के घाती और मांस के आहारी इन पापों के करने वाले नर्क में जाते हैं जिसमें भी जैसा पाप वैसी सजा ( नरक ) नरक में आयुष्य भी अलग २ होती हैं वहाँ से पूरा आयुष्य भुगत लेता है तब छुटकारा पाकर जीव पुन मृत्युलोक में आता है। मृत्युलोक में मनुष्य और तियच रहते हैं। मनुष्य तीन प्रकार के होते हैं कर्मभूमि अकर्मभूमि और समुर्छिम मनुष्य । कर्मभूमि मनुष्य उसे कहते हैं कि जहाँ असि मसि और कसी कम से आजीवका करते हों जैसे अपने यहाँ मनुष्य हैं दूसरे-अकर्मभूमि जिसको जुगलिये भी कहते हैं उनके यहाँ असि मसि कसी नहीं होती है पर कल्पवृक्ष उनकी मनोकामना पूर्ण करते हैं वे बड़े ही भद्रिक परिणामी होते हैं उनका श्रायुष्य और शरीर दीर्घ होता है पर काम भोग की इच्छा बिल्कुल स्वल्य होती है । जिन्दगी भर में एक ही दफे भोग करते हैं जिससे एक युगल पैदा होता है और आगे चलकर अपने जीवन के अन्तिम भाग में बही दम्पत्ति बन जाते हैं। उनकी गति केवल एक स्वर्ग की ही होती है। समुर्छिम मनुष्य-जो मनुष्य के टट्टी पेशावादि असूची पदार्थों के अन्दर अन्तर महूर्त में ही समुर्छिम मनुष्य पैदा होजाते हैं, उनका आयुष्य अन्तर मुहूर्त का होता है । मृत्युलोक में दूसरे तिर्यच हैं जिसके पाँच भेद हैं एकेन्द्रिय, बीन्द्रिय तेन्द्रिय, चौरीन्द्रिय और पांचेन्द्रिय इनके अलावा इस मृत्युलोक में जम्बुद्वीप आदि असंख्याता द्वीप लवण समुद्रादि असंख्याता समुद्र हैं जिसमें जम्बुद्वीप धातकीखंड और पुष्करार्द्ध एवं ढ़ाई द्वीप में मनुष्यतिथंच दोनों हैं और शेष द्वीप समुद्रों में तिथंच रहते हैं। ३.उर्ध्वलोक इसमें देवता रहते हैं । देवता चार प्रकार के होते हैं जैसे भुवनपति, व्यान्तर, ज्योषि और वैमानीक जिसमें भुबनपति और व्यान्तर तो नीचे लोक में, ज्योतिषी तिर्यग लोक में और वैमानीक उर्ध्व लोक में रहते हैं इन नरक तिर्यच मनुष्य और देवताओं के अलग २ भेद कहे जाय तो ५६३ भेद होते हैं और इन तीन लोक के ऊपर मुक्त जीव रहते हैं वे कर्म मुक्त होने से मोक्ष में जाने के बाद फिर वहाँ से नहीं लौटते हैं पर बहाँ अनंत सुखों में सदैब के लिये स्थित रहते हैं । अधो मध्य, और उर्ध्व, अथवा स्वर्ग मृत्यु पाताल इन तीनों को लोक एवं सृष्टि कही जाति है जिसका आकार नीचे से चौड़ा तीपाया के जैसे मध्य में संकीर्ण-गोल मलर के जैसे उर्ध्व चौड़ा उभी मर्दैग के सदृश और सम्पर्ण लोग का आकर जामा पहना हुआ कम्मर के हाथ लगाकर नाचना हुआ पुरुष के सदृश हैं। इस सृष्टि को न किसीने रची है न कभी इसका विनासही होगा हाँ कभी उन्नति और कभी अवनीति हुआ करती है इसी प्रकार अनादि काल से उन्नति अवनीति का काल चक्र चलताही रहता है। ६७२ [ सन्यासीजी का सृष्टिवाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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