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आचार्य देवगुप्तभूरि का जीवन ]
: ओसवाल संवत् ६६०-६८२
पर साधु भिक्षा लेकर आ गये थे अतः माता वन्दन कर अपने स्थान पर चली गई । पर अपने पुत्र का अतिशय प्रभाव को देखा जिससे उसके हर्ष का पार नहीं था।
शाह डाबर ने अपनी स्त्री से कहा देख लिया न बेटा को तेरा बेटा कितने ठाठ से रहता है। अपने घर में रहता तो घर वाले या नगर वाले ही मानते पर आज वह जहाँ जाते हैं वहाँ बड़े २ राजा महाराजा उनकी पूजा करते हैं । यदि बेटा के साथ अपन भी दीक्षा ले लेते तो अपना भी कल्याण हो जाता । सेठानी ने कहा कि अब भी क्या हुआ है दीक्षा लेकर कल्याण करो। सेठजी ने कहा ठीक है, आप तो मेरे साथ हो न ? बस हँसी २ में सेठानी ने कह दिया कि आप दीक्षा लें तो मैं भी तैयार हूँ। जब प्राचार्य देवगुप्त सूरि को पता लगा कि मेरे माता पिता दीक्षा का विचार कर रहै हैं अतः मेरा कर्तव्य है कि इनका उद्धार करूँ । समय पाकर सूरिजी ने शाह डाबर को उपदेश दिया। डाबर ने कहा कि अब हमारी अवस्था तो वृद्ध हो गई है तथापि आपके विश्वास पर हम दोनों आपके पास दीक्षा लेने का विचार कर रहे हैं पर आप यहाँ चर्तुमास करें मैं कुछ द्रव्य शुभ कार्य में लगा कर दीक्षा लंगा तथा चन्द्रावती श्री संघ ने भी सूरिजी से चर्तुमास की खूब अाग्रह से बिनती की और सूरिजी ने लाभालामा कारण जानकर चतुर्मास की स्वीकृति दे दी । बस, फिर तो था ही क्या शाह डावर एवं जनता का उत्साह कई गुना बढ़ गया।
सूरिजी का व्याख्यान हमेशा होता था । तथा चन्द्रावती में एक सन्यासी ने भी चतुमाल किया था उन्होंने एक दिन कहा कि इस संसार की भूमि पर सात द्वीप और सात समुद्र हैं और स्वर्ग में पाँचवा ब्रह्म लोक है इनके अलावा न तो द्वीप समुद्र हैं और न स्वर्ग ही है इत्यादि । यह बात सूरिजीके कानों तक पहुँची तो आपने अपने व्याख्यान में फरमाया कि सात द्वीप और सात समुद्र ही नहीं पर असंख्य द्वीप और असंख्य समुद्र हैं तथा स्वर्ग में पाँचवा देवलोक ही क्यों पर उसके ऊपर क्रमशः सर्वार्थसिद्ध वैमान तक कुल २६ देवलोक हैं । सात द्वीप सात समुद्र की प्ररूपना करने वाला मूल पुरुष शिवराजर्षि थे जिनका वर्णन श्री भगवती सूत्र के ११ शतक ५ उद्देशा में इस प्रकार किया है।
हस्तनापुर के राजा शिव ने तापसी दीक्षा ली और तप करने से उनको विसंग ज्ञान उत्पन्न हुआ और उन्होंने अपने ज्ञान से सातद्वीप सात समुद्र देखे और जैसा देखा वैसा ही लोगों को कह दिया पर बहुत से लोगों ने इस बात को नहीं मानी जिसले शिवराजर्षि को शंका उत्पन्न हुई अतः शंक' से जो ज्ञान था वह भी चला गया । उस समय भगवान महावीर देव का पधारना हस्तनापुर में हुआ अतः शिवराजर्षि अपनी शंका का समाधान करने को भगवान के पास गया : भगान् ने उसके मनकी बात कहकर समझाया कि ऋषिजी आपने विभंग ज्ञान से केवल सातद्वीप सात समुद्र ही देखा है परन्तु द्वीप समुद्र असंख्याते है इससे ऋषिजी ने कइ तर्क वितर्क की और अन्त में शिवराजर्षि ने भगवान महावीर के पास दीक्षा लेली और तप संयम की आराधना करने से अतिशय ज्ञान होगया जिससे आप स्वयं असंख्याते द्वीप समुद्र देखने लग गये ।
इसी प्रकार श्री भगवती सूत्र ११ वाँ शतक के १२ वाँ उद्देशा में वर्णन किया है कि-पोगल सन्यासी ने विभंग ज्ञान द्वारा स्वर्ग पाँचवा ब्रह्म देवलोक देखा अतः उन्होंने प्ररूपना करदी कि ब्रह्म देवलोक के सिवाय स्वर्ग ने देवो नहीं है कई लोगों ने इसको नहीं माना तब उसने भी भगवान महावीर के पास जाकर निर्णय किया और जैनदीक्षा स्वीकार करली थी और वे कर्मक्षय कर केवल ज्ञान प्राप्त किया तब जाकर लोगों को समझाया कि वर्ग २: है अन्त में मोक्ष चले गये। जब इन दोनों मान्यताओं के मल
सन्यासीजी का सृष्टिवाद ।
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