________________
वि० सं० २६०-२८२ वर्ष ।
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का हातहास
सेठजी के वचन सुन सेठानी को बहुत गुस्सा आया और क्रोध के साथ कहा कि मैं अपने जीते जी तो कल्याण को दीक्षा नहीं लेने दूंगी बाद मेरे मरने के मले ही बाप बेटा दीक्षा लेलेना ।
सेठजी ने कहा यदि तेरी मृत्यु होगई तो आठ नहीं पर सात बेटा ही तुझे उठाकर स्मशान में ले जाकर जला देंगे फिर कल्याण के लिये इतना आग्रह क्यों करती है ? जिस सूरिजी को अपना गुरु समझते हैं उन्होंने कल्याण को मांग लिया फिर नहीं देने में अपनी : या शोभा रहेगी ! और कल्याण जाता कहां है तेरे पास नहीं तो गुरु महाराज के पास रहेगा। मैं सूरिजी के पास स्वीकार कर आया हूँ इत्यादि । इच्छा न होते हुये भी पेठानी को सेठजी से सहमत होना पड़ा। दूसरे दिन डाबर ने कल्याण की खूब परीक्षा की पर वहां हलद का रंग नहीं था, पर रंग था चोल मजीठ का । शाइ डाबर ने जिन मन्दिरों में अष्टान्हि का महोत्सव करवाया और भी दीक्षा के लिये जो कुछ करने को था वह सब विधान किया। कल्याण के साथ कोई २२ नर नारी दीक्षा के लिये तैयार हो गये । सूरिजी महाराज ने उन सबको बिधि बिधान से भगवती जैन दीक्षा देकर अपने शिष्य बना लिये । कल्याण का नाम कल्याणकलश रख दिया । वास्तव में कल्याण था भी बलशण :न्दिर का कलश ही। मुनि कल्याणकल ने गुरुकुल वास में रहकर ज्ञानाभ्यास करना शुरू किया । मुनि कल्याण में विनय गुण की विशेषता थी कि उसने स्वल्प समय में वर्तमान साहित्य का अध्ययन कर लिया । न्याय, तर्क, छन्न, काव्यादि, साहित्य में आप धुरंधर विद्वान होगये । मुनि कल्याण कलस ने निमित्तज्ञान का भी अध्ययन कर लिया था। यही कारण था कि आचार्य ककसूरि ने तीर्थ श्री सम्मेतशिखर की शीतल छाया में हजारों मुगियों में शुनि कल्याणकलस को सर्वगुणसम्पन्न जानकर सूरिपद से विभूषित कर श्रापका नाग देवगुप्तसूरि रख दिया था जो पट्ट क्रमश: चला आ रहा था।
__ आचार्य देवगुप्तसूरिजी बड़े ही प्रभाव शाली एवं धर्म प्रचारक आचार्य हुए आचार्य श्री धर्मप्रचार करते हुए एक समय चन्द्रावती की ओर पत्रार रहे थे । शाह डाबर ने सुना कि आचार्य देव गुमासूरि चन्द्रावत' पधार रहे हैं तो उसनेअपनी स्त्री पन्ना को कहा तुम्हाग बेटा आवार्य बनकर पा रहा है पन्ना कई अप्ता से पुत्र से मिलना चाहती थी। यों तो चन्द्रावती के राजा प्रजा ने सूरिजी के नगर प्रवेश का महोत्सव किया ही था पर उसमें शाह डाबर ने विशेष भाग लिया । इ.ना ही क्यों पर शाह बाबर ने इस महोत्सव में र वा लक्ष द्रव्य व्यय किया । जब सूरिजी ने मन्दिरों के दर्शन कर उपाश्रय पधार कर धर्मोपदेश देना प्रारम्भ किया तो माता पन्ना के हर्ष का पार नहीं रहा इतना ही क्यों पर माता पन्ना के तो हर्ष के आँसू बहने लग गये । व्याख्यान के अंत में सभा विसर्जन हो गई तथापि माता पन्ना वहाँ खड़ी २ अपने बेटा के सामने देख रही थी। सैकड़ों साधु और साध्वियों के अधिपति कल्याण ( सूरिजी ) ने माता को उच्च स्वर से धर्म लाभ दिया और पूछा कि श्राविका धर्म साधन करती हो न ? संसार में धर्म ही सार है पूर्व जन्म के लिये खर्ची साथ में ले लेना ? इस पर माता ने पहले तो उपालम्ब दिया कि आप तो हम लोगों को छोड़ के चले गये और जाने के बाद दर्शन भी नहीं दिये इत्यादि । मात पन्ना ने पुनः कहा कि आप तो संसार से तर गये अब हमको भी ऐसा रास्ता बतलाइये कि हमारा भी कल्यरण हो जाय? सूरिजी ने कहा-माता जिनेन्द्र देव के धर्म की आराधना करो। संसार समुद्र से पार करने वाला यह एक जैनधर्म ही है, इत्यादि । माता ने कहा कि आप यह चतुर मास यहीं करावें कि हम लोग कुछ लाभ उठा सकें। सूरिजी ने कहा कि क्षेत्रस्पर्शना । माता का दिल जाने का नहीं था ६७०
[ कल्याण की दीक्षा और देवगुप्तसरि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org