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________________ आचार्य देवगुप्तभरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६६०-६८२ "कल्याण --माता ठीक कहती है मेरी इच्छा दीक्षा लेने की है । "पिता इसका कारण क्या है कि तू आज दीक्षा का नाम लेता है ? "कल्याण-क्या आपने गुरु महाराज के व्याख्यान में नहीं सुना है गुरु महाराज ने फरमाया था कि विषय सुख तो क्षण भर के हैं पर उसके दुःख चिरकाल तक भुगतने पड़ते हैं। खण मित्त सुक्खा बहुकालदुक्खा, पगामदुक्खा अणिकाम सोक्खा । संसार मोक्खस्स विपक्ख भूया, खाणीअणत्थाणउकाम भोगा ॥१॥ पिताजी मैं क्षणभर के सुखों के लिये चिरकाल के दुःख भुगतना अच्छा नहीं समझता हूँ। अतः आप कृपा कर मुझे आज्ञा दीरावें कि मैं दीक्षा लेकर अपना कल्याण करू। पिता ने कहा ठीक है मैं इस पर विचार करूंगा जाओ अभी तो काम करो । सेठानी पन्ना को कहा कि तुम क्यों दुःख करती हो मैं कल्याण को समझा दूंगा । यदि कल्याण के भाग में दीक्षा की रेखा होगा तो उसे मिटा भी कौन सकता है। शाह डाबर समय पाकर शाम को सूरिजी महाराज के पास गया । डाबर सूरिजी का परम भक्त था। गच्छ में भी एक अग्रेश्वर श्रावक था । डाघर जैसा धनाढ्य था वैसा धर्मज्ञ भी था। उसने सूरिजी से नम्रता पूर्वक अर्ज की कि पूज्यवर ! आज कल्याण ने घर पर आकर दीक्षा की बात की जिससे उसकी मां ने बहुत दु.ख किया और भोजन तक भी नहीं किया। अतः कल्याण को समझा दिया जाय कि अभी दीक्षा का नाम न ले, और २-४ मास में उसका विवाह भी करना है । अतः निर्विघ्नता से विवाह हो जाय तो मेरे चित्त को शान्ति रहे दसरा कल्याण अभी बच्चा है दीक्षा में क्या समझता है। सूरिजी ने कहा डाबर ! तू भाग्यशाली है और गच्छ में अप्रेश्वर भी है तू जानता है कि साधुओं को तो इस बात का कुछ भी स्वार्थ नहीं है । दूसरे मेरे शिष्यों की भी कमी नहीं है। हजारों साधु साध्वियां गच्छ में विद्यमान हैं। एक कल्याण बिना हमारा कोई काम रुका हुआ भी नहीं है कि कल्याण को दीक्षा देने की कोशिश की जाय परन्तु मुझे आश्चर्य इस बात का है कि इस सामग्री में स्वयं तुमको दीक्षा लेनी चाहिये इस हालत में कल्याण की दीक्षा रोकने की कोशिश करता है। कल्याण दीक्षा लेगा या नहीं इसके लिये तो निश्चय कौन कह सकता है । श्रावक शासन का एक अंग होता है। यदि तेरे आठ पुत्रों में से एक पुत्र मांगा जाय तो क्या तू इन्कार कर सकेगा ? इसका उत्तर डाबर क्या दे सकता था । डाबर ! यदि यह कल्याण तेरे घर में रहेगा तो एक तेरे घर का ही काम करेगा परन्तु दीक्षा ले ली तो जैन शासन का उद्धार और हजारों लाखों का कल्याण करने में समर्थ बन जायगा । इससे तुम को हानि नहीं पर अधिक से अधिक फायदा है। यदि कल्याण दीक्षा लेना चाहता हो तो तुम अन्तराय कर्म नहीं बन्धना अगर मोहनीया कर्मोदय से कुछ मोह श्रा भी जाय तो ज्ञान दृष्टि से विचार करना। तथा श्राविका को भी समझा देना। शाह डाबर समझ गया कि सूरिजी की इच्छा कल्याण को दीक्षा देने की है। बस, सूरिजी को बन्दन कर अपने घर पर आया और सेठानी पन्ना को कहा कि कल्याण दीक्षा की बात करता है इसमें केवल कल्याण ही नहीं पर गुरु महाराज भी शामिल हैं। खैर, तू पुण्यवती है तेरी कुक्ष से जन्मा हुआ तेरा बेटा दीक्षा ले इसका सब यशः तेरे को ही है। अतः अब कहने सुनने की जरूरत नहीं है। महोत्सव के साथ कल्याण को दीक्षा दीरादें । इसमें ही कल्याण का और सबका कल्याण है। कल्याण के वैराग्य का चर्चा ] ६६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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