________________
वि० सं० २६०-२८२ वर्ष
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
हजारों मनुष्य सभा में होने पर भी वातावरण शान्त था सबका दिल धर्म का स्वरूप सुनने की ओर लग रहा था और एकाग्र चित्त से जैसे चातक जलबिन्दु की आशा करते हैं वैसे जनता सूरिजी के व्याख्यान के लिये टकटकी लगा कर उत्सक हो रही थी।
___ सूरिजी ने कहा 'वत्थुसहावधम्मों' अर्थात् वस्तु के असली स्वभाव को धर्म कहा जाता है और उस स्वभाव में विकृति होजाना अधर्म है । जैसे आत्मा का असली स्वभाव ज्ञान दर्शन चरित्र में रमणता करने का है जिसको धर्म कहा जाता है और वही आत्मा अपने असली स्वभाव को भूल कर विषय कषाय में रमणता करता है उसे अधर्म कहा जाता है । जब श्रात्मा अज्ञान के वश सांसारिक माया में लिप्त होकर परवस्तु यानि विषय कषाय के चक्र में पड़कर धर्म के नाम पर अधर्म करने में तत्पर होती है तब उसको असली रास्ते पर लाने के लिये किसी न किसी निमित्त कारण की आवश्यकता रहती है उसमें सबसे प्रथम कारण देव गुरु धर्म का है कि उनकी उपासना से श्रात्मा में चैतन्यता प्रगट हो जाती है और निज घर में आकर अपने असली स्वरूप में रमणता करने लग जाता है यहाँ पर संक्षिप्त से देव गुरु धर्म के निमित्त का थोड़ा सा स्वरूप बतला देना अप्रासांगिक न होगा।
१-देव- चाहे इस समय किसी धर्म के देव विद्यमान नहीं हैं पर उनका निर्दोष जीवन पढ़ने से ज्ञात हो जाता है कि जिस देव को देवत्व प्राप्त होने के बाद किसी प्रकार की लीला कौतूहल रागद्वेषादि श्रष्टादश दूषण नहीं है केवल विश्वोपकार में ही उनकी जीवनयात्रा समाप्त हुई थी ऐसे देव के स्मरण से मन पवित्र होता है गुण कीर्तिन से वचन पावन और उनकी शान्त मुद्रा एवं ध्यानावस्थित प्राकृति बाली मूर्ति की सेवा पूजा करने से काया पवित्र हो जाती है ऐसे देव की उपासना प्रथम कारण है।
२-गुरु-कनक कामिनी के त्यागी नौवाड़ विशुद्ध ब्रह्मचर्य के पालक प्रारंभ परिग्रह एवं संसारी कार्यों से मुक्त और चार कषाय एवं पांच इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करली है अहर्निश स्वपर कल्याण में जिनका प्रयत्न हो ऐसे गुरु दूसरा कारण है।
३--धर्म - जिसके अन्दर अहिंसा एवं स्याद्वाद और जिनाज्ञा को अघ्र स्थान और साथ में सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य परोपकारादि कार्य किये जायं यह धर्म तीसरा कारण है !
जिस जीव ने संसार में जन्म लेकर पूर्वोक्त देवगुरुधर्म को अच्छी तरह से पहिचान नहीं की है एवं उपासना भी नहीं की है उसका जन्म पशु की भांति निरर्थक अर्थात् पृथ्वी को भारभूत ही समझा जाता है।
जैसे समझदार मनुष्य इच्छित स्थान पहुँचने के लिये हस्ती अश्वरथादि का संग्रह करता है वैसे ही मोक्ष नगर में जाने के लिये देवगुरुधर्म की उपासना कर लाभ का संग्रह करना चाहिये।
श्रोताओं स्वकल्याण के साथ पर कल्याण करना भी महान् पुन्य है । पूर्व जमाने में कई गजा महा. गजा एवं सेठ साहूकार हो गये हैं और उन्होंने सर्व साधारण के कल्याण के लिये जैन मन्दिरों से मेदनी मंडित करवा दी थी जैसे राजा उत्पलदेव रावरुद्राट कक सम्राट चन्द्रगुप्त अशोक सम्प्रति चक्रवर्ति खारवेलादि नरेशों ने अनेक पुन्य कार्य किये जिसमें उन्होंने हजारों लाखों मन्दिर बना दिये थे । भले ही आज उन नरेशों का संसार में अस्तित्व नहीं है पर उनके किये हुये पुन्य कार्य रूपी अमर यशः दुनिया में जीवित है और जहाँ तक उनके बनाये पुन्य के स्तम्भ रूप मन्दिर रहेंगे वहां तक उनके धवल यश को जनता गाया
६७६
[सूरिजी का राज सभा में व्याख्यान
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org