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________________ आचार्य देवगुप्तहरि का जीवन [ ओसवाल संवत् ६६०-६८२ ही करेगी इत्यादि सुरिजी ने खूब प्रभावशाली उपदेश दिया बाद जैन शासन की जयध्वनि के साथ सभा विसर्जन हुई । सूरिजी के व्याख्यान का प्रभाव यों तो सब लोगों पर हुआ ही था पर विशेष वहां के राजा चित्रगेंद पर हुआ कारण उनको सूरिजी पर पहले ही श्रद्धा हो गई थी कि मन से वन्दन करने पर भी आपने धर्मलाभ दे दिया था फिर सुन लिया सूरिजी का व्याख्यान जिसमें सूरिजी का किंचित मात्र भी स्वार्थ नहीं था जो आपने फरमाया वह केवल जीवों के कल्याण के लिये ही कहा था। राजा चित्रगेन्द सूरिजी का पक्का भक्त बन गया और कई प्रकार से तर्क वितर्क कर धर्म का निर्णय कर जैनधर्म को स्वीकार भी कर लिया और अपनी ओर से एक विशाल जैनमंदिर बनाना भी शुरू कर दिया और उस मंदिर के लिये भगवान महावीर की सुबर्णमय मूर्ति बनाई जिसके नेत्रों के साथ सवा सवा लक्ष रुपयों की दो मणियें लगाई थी जो रात्रि में सूर्य के सदृश्य प्रकाश करती थीं। जब राजा के बनवाया मन्दिर और मूर्ति तैयार हो गया तो राजा ने अपने निज मनुष्य को भेज कर गुरुवर्य देवगुप्तसूरि को बुलवाये और श्राचार्य श्री का पधारना कन्नौज राजधानी में हुआ तो राजा एवं सकल श्रीसंघ ने सूरिजी का नगर प्रवेश महोत्सव बड़े ही समारोह से किया और सूरिजी महाराज के उपदेश से राजा ने जिन मन्दिरों में अष्टान्हिका महोत्सव करवाया तथा आचार्य श्री देवगुप्रसूरि के कर कमलों से नूतन बनाई मूर्तियों की अंजनसिलाका तथा मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई जिसमें राजा ने सवा करोड़ द्रव्य व्यय कर जैन धर्म की उन्नति के साथ अनंत पुन्य भी संचय किया। आचार्य देवगुप्तसूरि महान प्रभाविक एवं जैनधर्म के कट्टर प्रचारक आचार्य हुये हैं केवल एक चित्रगेंद राजा को ही जैनी नहीं बनाया पर अनेक राजाओं को जैनधर्म में दीक्षित कर जैनधर्म को उन्नति के ऊंचे शिस्तर पर पहुँचा दिया था। पट्टावली कारों ने आप श्री के जीवन विषय बहुत विस्तार से वर्णन किया है। आचार्य देवगुप्तसूरि को बिहार करने का बड़ा ही शौक था। सैकड़ों कोसो का फासला आपको एक खेल ही नजर आता था। कहाँ मरुधर और कहाँ पूर्व, वे इच्छा करते तब ही बिहार कर देते । भला उस जमाने के मनुष्यों के संहनन कितने ही मजबूत हों परन्तु बिना धर्मोत्साह इस प्रकार का विहार हो नहीं सकता पर धर्मप्राण आचार्य देवगुप्तसूरि के नस-नस में जैनधर्म के प्रचार की भावना ठूस ठूस कर भरी हुई थी आप कन्नौज से विहार कर पूर्व की ओर पधारे, अंग बंग कलिंग की भूमि में भ्रमण करते हुये सम्मेतशिखर तीर्थ पर जाकर बीस तीर्थंकरों की और आचार्य कक्कसूरि को निर्वाणभूमि की यात्रा की । बाद कई अर्सा तक उस प्रदेश में भ्रमण कर वहीं विचरने वाले साधुओं की सार सम्भाल तथा वहां की जनता में धर्मभावना विशेष रूप से पैदा की। तत्पश्चात् आप पांचाल सिन्ध कच्छ सौराष्ट्र लाटप्रदेश में भ्रमण करते हुये मरुधर में पधारे जिसको सुनकर मरुधरवासियों के उत्साह का पार नहीं रहा आप क्रमशः विहार करते उपकेशपुर पधारे। श्रीसंघ ने आपका उत्साह पूर्वक स्वागत किया। श्रीसंघ के आग्रह से सूरिजी ने उपकेशपुर में चतुर्मास कर दिया। सूरिजी के विराजने से यों तो बहुत उपकार हुआ पर एक विशेष बात यह हुई कि आपनी ने कुमट गौत्रीय शाह जैता के पुत्र सारंग को भविष्य में होनहार समझ के तदन्वये देवगुप्ताचार्या यैः प्रतिबोधितः । श्रीकान्यकुज देशस्य स्वामी चित्रांगदाभिधः।। स्वराजधानी नगरे, स्वर्ण विम्ब समन्वितम् । योऽकार मज्जिन गृहं देवगुप्त प्रतिष्ठितम् ॥ उ. च. सुवर्ण मय मूर्तियों की प्रतिष्टा] ६७७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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