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________________ वि० सं० २६०-२८२ वर्ष । [भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास दीक्षा दे अपना शिष्य बना लिया था और उसका नाम सौभाग्यकीर्ति रख दिया था। तत्पश्चात सूरिजी ने मरुधर मेदपाट आवंती प्रदेश में विहार कर जैनधर्म का प्रचार एवं उन्नति की । जब आप श्रीमान् उज्जैन नगरी में विराजते थे तब वहां के श्रीसंघ ने वहां एक जैनों की सभा की और बहुत दूर २ से चतुर्विध श्रीसंघ वहां आया धर्म प्रचार के विषय खूब जोरदार व्याख्यान हुये जिससे चतुर्विध श्रीसंघ और विशेष श्रमणसंघ में धर्म प्रचार करने की विजली पैदा हुई और वे धर्म प्रचार के लिये कटिबद्ध भी होगये। आये हुये साधुओं के अन्दर कई योग्य साधुओं को सूरिजी ने पदवियां भी प्रदान की जैसे --- १--मुनि सौभाग्य कीतिं आदि सात साधुओं को उपाध्याय पद प्रदान किया। २-मुनि राजहंसादि ग्यारह साधुओं को बाचनाचार्य पद । ३-मुनि दयामूर्ति आदि पांच साधुओं पण्डित पद । ४-मुनि चारित्रसुन्दरादि पांच मुनियों को गणिपद । ५- मुनि मङ्गलकलसादि तीन मुनियों को प्रवृतकपद । सूरिजी बड़े ही समयज्ञ थे आप यह भी जानते थे कि भिन्न २ प्रांतों में विहार करने वाले साधुओं में नायकत्व की जरूरत है तथा योग्य मुनियों की कदर करने से एक तो उनका उत्साह बढ़ता रहेगा और दूसरे भी साधु अपनी योग्यता बढ़ाने की कोशिश करेंगे। राजनीति में भी देख जाता है कि केवल एक राजा ही राजतंत्र नहीं चला सकता है पर उनके राजतंत्र चलाने में मन्त्री, महामन्त्री, दीवान, प्रधान, हाकिम, हवलदार आदि कई पदवीधरों की आवश्यकता रहती है । इसी प्रकार धर्नशासन भी केवल एक श्राचार्य से ही नहीं चलता है पर आचार्य के अलावा उपाध्याय, गणी, गणविच्छेदक, पण्डित, वाचनाचार्य और प्रवृतकादि पद प्रतिष्ठितों की आवश्यकता रहती है और उसकी पूर्ति के लिये ही सूरिजी ने योग्य साधुओं को पदवियां प्रदान की थी। तदनन्तर सूरिजी ने उन पदवीधरों की अध्यक्षता में मुनियों को पृथक र प्रान्तों में विहार करने की आज्ञा देदी और उन महात्माओं ने सूरिजी की आज्ञा शिरोधार्य कर निर्दिष्ट स्थानों की ओर विहार भी कर दिया। पहिले जमाने में दश-दश बीस-बीस एवं इनसे भी अधिक दक्षायें एक ही साथ में होजाती थी इसका मुख्य कारण तो उस जमाने में जीवों का हलुकर्मी पाना था। दूसरे दीक्षा देने वाले आचार्य निस्पृही और परोपकारी थे। तीसरे उनका व्याख्यान त्याग वैराग्य एवं श्रात्मकल्याण के लिये ही होता था। चतुर्थ वे केवल अपनी जमात बढ़ाने को ही दीक्षा नहीं देते थे। पर उनकी भावना संसार के कारागृह से छुड़ा कर उनका उद्धार करने की ही रहती थी। पांचवें दीक्षा लेने वालों की पहिले पूरी परीक्षा की जाती थी और जो योग्य होता उसको ही दीक्षा दी जाती थी यही कारण था कि जनता में दीक्षा का बड़ा भारी महत्त्व समझा जाता था । चाहे कोई दीक्षा न भी लेता हो पर दीक्षा लेने वाले को वे अच्छा समझते थे और उनको पूज्य भाव से देखते थे। धर्म प्रचार का मुख्य तय आधार साधुओं पर ही रहता है । जितनी अधिक संख्या में साधु होते है उतना ही अधिक धर्म प्रचार होता है। एक समय अनार्य देशों तक साधु विहार करते थे तो उन अनर्य देशों में भी जैन धर्म का काफी प्रचार होगया था । अतः धर्मप्रचार के लिये साधुओं की आवश्कता है। उपकेशगच्छ के आचार्यों के पास अधिक दीक्षा लेने का कारण यह था कि एक तो इन प्रान्तों में ६७८ [उज्जैन नगरी में संघ सभा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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