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________________ आचार्य देवगुप्तसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६६०-६८२ जैन धर्म की नीव ही उपकेशगच्छाचार्यों ने डाली थी। दूसरे उपकेशगच्छाचार्यों का इन प्रान्तों में विहार विशेष होता था तीसरे उनका व्याख्यानभी त्याग वैराग्य पर विशेष होता था चौथे इस गच्छके प्राचार्य इतने कुशल होते थे कि कोई भी प्रान्त साधु विहीन नहीं रखते थे प्रत्येक प्रान्त में आवश्यकतानुसार साधुओं का विहार करवा ही देते थे। पांचवा इस गच्छ में एक ही प्राचार्य होते आये है कि सब साधु साध्वियां एक ही आचार्य की आज्ञा में चलते थे कि आपस में मान बड़ाई या मनोमालिन्यता का कारण ही नहीं था। छट्टा आचार्य स्वयं कम से कम एक बार तो उन सब प्रान्तों को संभाल ही लेते थे इत्यादि कारणों से उप. केशगच्छीय आचार्यों ने साधु संख्या खूब बढ़ाई थी और जैनधर्म का प्रचार भी प्रचुरता से किया था यदि उनका अनुकरण आज भी किया जाय तो आज भी आसानी से धर्म प्रचार कर सकते हैं परन्तु वर्तमान आचार्यों में तो स्वार्थता, शिथिलता, कायरता लोलुपता और अहंपदादि कई ऐसे गुण (1) धुस गये हैं कि वे सामग्री के सद्भाव कुछ करने काबिल नहीं रहे हैं यही कारण है कि कई प्रान्तों में जहाँ लाखों जैन थे वे क्षेत्र जैनधर्म विहीन बन गये हैं इसके लिये सिवाय भवितव्यता के और क्या कहा जा सकता है। आचार्य देवगुप्त सूरि बड़े ही प्रभाविक प्राचार्य थे आपके ब्रह्म वर्यादि अनेक अतिशय गुणों से रंजित हो राजा महाराजा तो क्या पर कई देवी देवता भी आपकी सेवा में उपस्थित रहते थे। आपश्री के उपदेश मे तो न जाने क्या जादू का चमत्कार रहा हुआ था कि क्या मनुष्य और क्या देवता जो एक बार आपके उपदेशामृत का पान कर लेता था वह सदैव उसके लिये लालायित ही रहता था। एक समय अंबा पद्मा अच्छृपत्ता और विजय एवं चारों देवियां श्री सीमन्धर स्वामी का व्याख्यान सुनने के लिये गई थी तो तीर्थङ्कर भगवान ने श्रीमुख से फरमाया कि इस समय भरतक्षेत्र में देवगुप्तसूरि अद्वितीय ब्रह्मचारी है और जैसी वाणी में मधुरता देवगुप्त के है वैसी दूसरे में नहीं है। व्याख्यान समाप्त होने के बाद चारों देवियां चलकर भरतक्षेत्र में देवगुप्तसूरि के पास आई। उस समय देवगुप्तसूरि आबू की कन्दरा में परमनिवृति में ध्यान लगा रहे थे। देवियों ने अपने मायावी रूप से अनेक प्रकार से अनुकूल प्रतिकूल उपसर्ग दिये पर वहां तो थे अकम्पमेरू जिसको कौन चला सके । आखिर देवियों ने अपने अपराध की माफी मांगती हुई कहा कि पूज्यवर ! जैसा सीमन्धर प्रभु ने अपने मुख से आपके अद्भत गुणों का बर्णन किया वैसे ही आप हैं। हम चारों देवियां आज से आपके चरणाविन्द की किंकरी हैं। अतः सेवाकार्य फरमा कर कृतार्थ करें हे प्रभो ! आप निर्वृति का एकान्त में सेवन करते हैं इसमें तो केवल आपका ही कल्याण है पर आप अपनी मधुरवाणी से उपदेश दिरावे तो उसमें अनेक जीवों का कल्याण हो सकता है और हम लोगों ने तीर्थङ्कर सीमंधर देव के मुखसे आपके वाणीकी मधुरता सुनी है उसी समय से आपके व्याख्यान की इतनी प्यासी हैं जैसे मरुधर के लोग पानी से प्यासे रहते हैं । अतः कृपा कर उपदेश सुनावें। आचार्य देवगुप्त सूरि ने उन देवियों को थोड़ा पर सारगर्भित उपदेश सुनाया जिसमें कहा कि पूर्व जन्म में क्या क्या कार्य करने से देवयोनि प्राप्त होती है और देवयोनि में देवताओं को क्या क्या कार्य करना चाहिये कि जिससे सुलभ बोधित्व प्राप्त हो, संसार के भ्रमण से छूट कर अक्षय सुख हासिल करलें इत्यादि । देवियाँ सूरिजी का मधुर उपदेश सुन कर खुश होगई और उनका दिल चाहने लगा कि ऐसा उपदेश पमेशा सुना करें। आचार्य देवगुप्तसूरि जैसे भाई के सपूत विरले ही होंगे कि जिन्होंने अपने जन्म देने वाले माता पिता को दीक्षा देकर उनकी सेवा भक्ति कर स्वर्ग पहुँचा दिये। तीर्थङ्कर सीमंधर का फरमान ] ६७९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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