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________________ आचार्य देवगुप्तसूर का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६६०-६८२ को तैयार होगये । इसमें मुख्य कारण सूरिजी के त्याग वैराग्य मय व्याख्यान का ही था शाह डाबर के ब्येष्ठ पुत्र कानड़ ने अपने माता पिता की दीक्षा का बड़ा हो शानदार महोत्सव किया। केवल महोत्सव में ही नहीं पर साधर्मी भाइयों को पहरामणी और याचकों को दान में उस दानेश्वरी ने लाखों द्रव्य खर्च किया । सूरिजी ने शुभ मुहूर्त्त में उन मोक्ष के उम्मेदवारों को विधि विधान के साथ भगवती जैन दीक्षा देकर उन सब का उद्वार किया । बस, पुत्र हो तो ऐसा ही हो कि अपने माता पिता का इस प्रकार उद्धार करें जैसे भगवान् महावीर और आर्य रक्षित सूरि ने अपने माता पिताओं को दीक्षा देकर उद्धार किया था । आचार्य देवगुप्तसूरि चन्द्रावती नगरी से विहार कर यूथपति की भांति भूमंडल पर भ्रमण करने लगे एक समय आचार्य देवगुप्तसूरि अपने शिष्य समुदाय के साथ मूमण्डल को पवित्र एवं भव्य जीवों का उद्धार करते हुये कान्यकुब्ज देश एवं आप कन्नोज राजधानी में पधार रहे थे। वहां की जनता को खबर होते ही उनके हर्ष का पार नहीं रहा, उत्साह का समुद्र उमड़ पड़ा भलो गुरु महाराज पधारे इसने बढ़कर और खुशी क्या हो सकती है । अतः वे बड़े ही समारोह से सूरिजी का स्वागत कर नगर प्रवेश कराया । सूरिजी का व्याख्यान हमेशा हुआ करता था । एक समय इधर तो सूरिजी का व्याख्यान हो रहा था उधर पास ही से वहाँ का राजा चित्रगेंद घुड़सवार होकर जारहा था राजा ने मनही से सूरिजी को वन्दन किया । सूरिजी ने राजा की अंगचेष्टा से जानकर उच्चस्वर से धर्म लाभ दिया राजा सुनकर चला गया पर मन में समझ गया कि यह महात्मा बड़े ही अतिशय ज्ञानी हैं ! शाम के समय राजा ने अपने प्रधान मंत्री रावल को कहा रावल ! तेरे आचार्य यहाँ आये हैं और अच्छे ज्ञानी बतलाते हैं। एक दिन राज सभा में उनका व्याख्यान होना चाहिये। रावल ने कहा हाँ हुजूर आचार्य श्री अच्छे ज्ञानी हैं और उनका व्याख्यान अपनी राजसभा में अवश्य होना चाहिये | मेरा खयाल तो है कि सूरिजी का व्याख्यान कल ही हो तो अच्छा है राजा ने कहा कि अच्छा कल ही सही । मंत्री रावल ने सूरिजी के पास जाकर वन्दन के पश्चात् राजा की ओर से निवेदन किया कि आपश्री का व्याख्यान कल राज-सभा में हो तो अच्छा है क्योंकि राजा की इच्छा आपका व्याख्यान सुनने की है । सूरिजी ने कहा बहुत अच्छा है राजा की और आपकी प्रार्थना को हम स्वीकार करते हैं। वस, मंत्री ने स प्रकार की तैयारियां करलीं । पुरुष वर्ग के साथ ही साथ महिलाओं के लिये भी कनात वगेरह का अच्छा प्रबन्ध कर दिया कि वे भी सूरिजी का व्याख्यान सुन सकें I दूसरे दिन ठीक टाइम पर सूरिजी अपने विद्वान शिष्यों को साथ लेकर राजसभा में पधारे। इधर राजा और राजकर्मचारियों ने सूरिजी का अच्छा स्वागत किया। सूरिजी के पधारने से पहिले ही समा श्रोता जनों से खचाखच भर गई थी। उधर महाराणीजी आदि राजअंतेवर और नागरिक महिलायें उपस्थित हो गई थीं। सूरिजी के एक बाल शिष्य था सबसे पहिले मंगलाचरण उसने किया जिसकी सारगर्भित मधुरवाणी राजा प्रजा को इतनी प्रिय होगई कि वे चाहते थे कि सम्पूर्ण व्याख्यान ही बातमुनि दे परन्तु बालमुनि मंगलाचरण करके चुप रह गया। तत्पश्चात् सूरीश्वरजी ने अपनी ओजस्वी वाणी से अपना व्याख्यान प्रारम्भ किया । आपने धर्म का महत्व, धर्म का स्वरूप और धर्म की साधना के विषय खूब ही विवरण के साथ व्याख्यान दिया जिसमें बतलाया कि दुनिया में अनेक धर्म प्रचलित हैं तथा धर्म का नाम ही इतना प्रिय है कि जनता उसको बिना संकोच अपना लेती है । पर मैं आज आपके सामने धर्म का स्वरूप कहूँगा सूरिजी कन्याकुतज राजधानी में | Jain Education International For Private & Personal Use Only ६७५ www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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