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वि० सं० १९९-२१८ वर्ष |
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
श्रमण संघ पर गहरा असर हुआ। साथ में श्राद्दवर्ग ने भी जागृत हो अपना फर्ज अदा करने की प्रतिज्ञा करली इत्यादि । पूर्व जमाने में केवल कागजों में प्रस्ताव करके ही कृतकृत्य नहीं बनते थे पर वे जिस कार्य्य को करना श्रावश्यक समझते उसे तत्काल ही करके बतला देते थे । यही कारण है कि उस समय जैनधर्म उन्नति की चरम सीमा तक पहुँगया था ।
उसी सभा के अन्दर आचार्य रत्नप्रभसूरि ने अपना पदाधिकार मुनी धर्ममूर्ति को अर्पण कर आपका नाम यक्षदेवसूरि रख दिया और इनके अलावा और भी कई योग्य मुनियों को पद प्रदान किये | बाद जयध्वनि के साथ सभा विसर्जन हुई ।
रात्रि समय में राजा मूलदेव की प्रेरणा से श्राह सभा भी हुई उसमें आचार्य श्री का उपकार मानना और साधुओं के धर्मप्रचार कार्य में हाथ बटाना अर्थात् यथासंभव मदद करने की प्रतिज्ञा की और भी धर्मसम्बन्धी कई कार्य करने के नियम बनाये गये और उनको तत्काल कार्य रूपमें प्रवृत करने का निश्चय किया -
तत्पश्चात् नूतन सूरिजी की आज्ञानुसार साधुओं ने पृथक् २ प्रान्तों एवं नगरों की ओर विहार किया । आचार्य रत्नप्रभसूरि को देवी के बतलाये ८ मास २७ दिनों की स्मृति करनेसे ज्ञात हुआ कि जब मेरा आयुष्य केवल २१ दिन का रहा है अतः आपने अलोचना प्रतिक्रमण करके उपकेशपुर की लुगाद्री पहाड़ी पर जाकर अनशन व्रत कर दिया और समाधी पूर्वक नाशवान शरीर का त्याग कर स्वर्ग पधार गये । 'आचार्य' श्री रत्नप्रभसूरि ने अपने १९ वर्षों के शासन में प्रत्येक प्रान्तों में घूम घूम कर जैनधर्मका खूब ही प्रचार बढ़ाया पूज्यराध्य श्राचार्य श्री के जीवन में किये हुए कार्यों के लिये पंहावल्यादि ग्रन्थों में बहुत विस्तार से उल्लेख मिलता है पर प्रन्थ बढ़ जाने के भय से यहाँ थोड़ामें ही बतला दिया जाता है कि श्रापश्री ने जन कल्याण के लिये कैसे २ घोखे और अनोखे कार्य किया है ।
१ - सत्यपुर में धर्मसी आदि अठारह नरनारियों को दीक्षा दी।
आचार्यश्री के करकमलों से भावुकों को दीक्षाएँ |
२
- दक्षिण की ओर विहार कर वहाँ भी बहुत ३ – उज्जैन के चतुर्मास के बाद इकवीस नर
४ - तक्षिला के श्रेष्ट गौत्रीय
गौसल ने
वागा ने
अंकार ने
श्रदू
ने
भगा ने
गोपाल ने
दूगा ने
कर्मा ने करमण ने
५
- रहाड़ी के भाद्र गौत्रीय ६ - सावस्थी के चिंचट गौत्रीय
७ - रेणुकोट के आदित्य नाग० ८- मसकापुर के आदिस्य नाग० ९- कोटीपुर के बाप नाग०
२ -- थगोद के बलाहा गौ०
११ - चुड़ी
के प्राग्वट वंशी
१२ - भंद्रेसर के प्राग्वट वंशी
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भव्यों को दीक्षादी ।
नारियों को दीक्षा दी।
सूरिजी के पास दीक्षा ली
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