________________
आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ]
। ओसवाल संवत् ५९९-६१८
नेतृत्व में' उपकेशपुर श्रीसंघ की एक सभा हुई और उसमें उपकेशपुर में चतुर्विध श्रीसंघ की सभा के लिये कार्यक्रम एवं सर्व प्रकार की योजना तैयार की तथा कार्य के लिये अलग २ समितियें स्थापित कर सब कार्यों को अच्छी तरह से व्यवस्थित कर दिया केवल एक समय का निर्णय करना सूरिजी पर रक्खा कारण ऐसा समय रखना चाहिये कि दूर और नजदीक के प्रायः सब साधु साध्वियां इस सभा में श्रासकें जिससे इस सभा का लाभ सब को मिल सके इत्यादि ।
ऐसे बृहत् कार्य के लिये खास तौर से दो बातों की आवश्यकता थी एक द्रव्य दूसरे कार्यकर्त्ता । उपकेशपुर में दोनों बातों की अनुकूलता थी । उपकेशवंशियों के पास पुष्कल द्रव्य था और कार्यकर्त्ता के लिये मरुधरवासियों की कार्यकुशलता मशहूर ही थी ।
संघ अमेश्वर ने सूरिजी के पास आकर सभा के लिये समय निर्णय की याचना की तो सूरिजी ने दीर्घ दृष्टि से विचार कर कहा कि माघ या फाल्गुण का मास रक्खा जाय तो नजदीक एवं दूर के प्रायः सब साधु साध्वियां एवं श्रमण संघ सुविधा से आ सकते हैं इत्यादि ।
श्री संघ ने कहा ! यदि माघ शुक्ल पूर्णिमा का दिन रखा जाय तो अच्छा है क्योंकि यह दिन परो पकारी आद्याचार्य रत्नप्रभसूरि की स्वर्गारोहण तिथि है । यों ही हमारे यहाँ माघ पूर्णिमा का अष्टन्हिका महोत्सव आदि हुआ करता है और पहले यहाँ सभा हुई वह माघ पूर्णिमा के दिन हुई थी और यह समय है भी सबको अनुकूल । कारण, चतुर्मास समाप्त होने के बाद तीन मास में भारत के किसी भी विभाग में श्रमणसंघ होंगे वे आ सकेंगे और हमारे थली प्रान्त में पानी वग़ैरह की भी सुविधा रहेगी इत्यादि । सूरिजी ने श्रीसंघ के कथन को मंजूर कर लिया । श्रतः श्रीसंघ अपने कार्य में संलग्न हो गया अर्थात् जो करने योग्य कार्य थे वे क्रमशः करने लग गये और आमन्त्रण के लिये अपने योग्य पुरुषों को सर्वत्र भेज दिये । इधर नजदीक और दूर-दूर देशों से चतुर्विध श्रीसंघ का शुभागमन हुआ । करीब ५ हजार साधु सवियाँ और लाखों गृहस्थ लोग उपकेशपुर को पावन बना रहे थे उपकेशपुर तो आज एक यात्रा का धाम ही बन गया था। साधुओं के परस्पर ज्ञानगोष्ठी और श्रावकों के धर्म स्नेह में खूष वृद्धि हो रही थी । स्वागत का सब इन्तजाम पहले से ही माकूल किया हुआ था ! विशेषता यह थी कि उपकेशगच्छ कोरंटगच्छ और वसन्तानिये एवं पृथक २ गच्छ समुदाय के साधु होने पर भी वे सब एक ही रूप में दीखते थे ।
ठीक समय पर श्राचार्य रत्नप्रभसूरीश्वरजी की नायकता में चतुर्विध श्रीसंघ की एक सभा हुई । सूरिजी ने पूर्व जमाने का इतिहास और वर्तमान समय की परिस्थिति का दिग्दर्शन करवाते हुये अपने ओजस्वी शब्दों में कहा वीरो ! साधुओं का जीवन ही परोपकार के लिये होता है। जिस देश प्रान्त नगर और घर में धर्मभावना फली फूली होती है वहाँ सदैव सुख शान्ति रहती है । चाहे साधु हो चाहे गृहस्थ हो दोनों का ध्येय आत्मकल्याण का ही होना चाहिये जिसमें भी विशेषता यह है कि स्वात्मा के साथ परात्मा का कल्याण करना । तीर्थङ्कर भगवान ने इसलिये ही घूम-घूम कर उपदेश दिया था । आचार्य रत्नप्रभसूरि यक्षदेवसूरि आदि आचार्यों ने हजारों कठिनाइयें इसी लिये सहन की थीं । श्रतः श्राप लोगों का भी यही कर्त्तव्य है कि स्वात्मा के साथ परात्मा का कल्याण करने को कटिबद्ध होजाइये जैसे पूर्व जमाने में नास्तिकों का जोर था वैसे ही आज क्षणिक वादियों का जोर बढ़ता जा रहा है उनके सामने डट कर रहना अपना कर्त्तव्य ही बना लेना चाहिये इस विषय के साहित्य का अध्ययन करना चाहिये इत्यादि आपके उपदेश का
श्रमणसभा की सफलता ]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
६२७
www.jainelibrary.org