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आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ५१५-५५७
मब्रों में त्रिविध संघ ही रहा । कारण साध्वी नग्न नहीं रह सके और वस्त्र धारण करने पर वे उसमें संयम नहीं मानते हैं अतः त्रिविध संघ ही रहा । इतना ही क्यों पर भूतकाल में अनन्त तीर्थङ्करों के शासन में अनंत सती साध्वियां मोक्षगई उनके लिये भी दिगम्बरों को इन्कार करना पड़ा। यह एक बड़ा भारी उत्सूत्र है : 23
२-दिगम्बरों के नग्नत्व के एकान्त हठ पकड़ने से दिगम्बर साधुओं की आज क्या दशा हुई है जो मुनि पृथ्व्यादि छः काया के जीवों का आरंभ करन करावन और अनुमोदन का त्याग कर पंच महावत धारी बने थे और मधुकरी मिक्षा से अपना निर्वाह करते थे ( जैन साधु आज भी मधुकरी भिक्षा से निर्वाह करते हैं ) वही दिगम्बर बन कर पात्र न होने से एक ही घर में भिक्षा करते हैं अतः वे पूर्वोक्त नियम का पालन नहीं कर सकते हैं । जब इन साधुओं को भिक्षा करते हुए को देखा जाय तो देखने वाले को घृणा आये बिना भी नहीं रहती है और उनका बिहार तो बिना गाड़ी और बिना रसोइये के हो ही नहीं सकता है बस दिगम्बरों में नग्नत्व रहता हुआ भी संयम कूच कर गया है।
३-वृद्ध ग्लानी तपस्वी साधु की व्यावच्च करना दिगम्बरों के शास्त्रों में भी लिखा है पर जब वस्त्र पात्र ही नहीं रखा जाय तो आहार पानी कैसे लाकर दे सकते हैं ?
४-नग्न रहने का मुख्य कारण परिसह सहन करना और ममत्व भाव से बचना है परन्तु दिगम्बर साधु नग्न रहने में न तो परिसह को सहन करते हैं और न ममत्व भाव से बच ही सकते हैं। शीत काल में नग्न साधु शीत से बचने के लिये मकान के अन्दर उसमें भी घास बिछाना ओड़ना चारों ओर पर्दे लगवाने और अग्नि की अंगीठियें जलाना आदि ये सब सावद्य कार्य शरीर के ममत्व से ही किये जाते हैं इसमें कई दिगम्बर मुनि श्रग्नि शरण भी हो गये फिर केवल एक नग्नत्व का हठ पकड़ने में क्या लाभ हैं ।
५-दिगम्बराचार्यों ने अपने ग्रन्थों में स्त्री पुरुष और नपुसक एवं तीनों वेद वालों की मोक्ष होनालिखा है परन्तु स्वयं वस्त्र नहीं रखने के कारण स्त्रियों के लिये मोक्ष का निषेध करना पड़ा है पर इस कल्पना को दिगम्घराचार्य ने ही असत्य ठहरा दी है । दिगम्बर मत में कई संघ स्थापित हुए थे उसमें यापनीय संघ भी एक है उस यापनीय संघ में एक शकटायन नाम का आचार्य हुआ उन शकटायनाचार्य ने स्त्रियों को मोक्ष होना और केवली को आहार करने के विषय दो प्रकरण बनाया है वे मूल प्रकरण वहां दर्ज करदिये जाते हैं।
स्त्री-मुक्तिप्रकरण प्रणिपत्य भुक्तिमुक्तिप्रदममलं धर्ममहतो दिशतः । वक्ष्ये स्त्रीनिर्वाणं केवलिभुक्तिं च संक्षेपात् ॥१॥ अस्ति स्त्रीनिर्वाणं पुंवत्, यदविकलहेतुकं स्त्रीषु । न विरुध्यति हिरत्नत्रयसंपद् नि तेहेतुः ॥२॥ रत्नत्रयं विरुद्धं स्त्रीत्वेन यथाऽमरादि भावेन । इति वाङ मात्रं नात्र प्रमाणमाप्ताऽऽगमोऽन्यदवा ॥३॥ जानीतेजिनवचनं श्रद्धत्ते,चरति चाऽऽर्यिका शवलम् । नाऽस्याऽसत्यसंभवोऽस्यां नाऽदृष्ट विरोध गतिरस्ति सप्तमपृथिवीगमनाद्यभावमव्याप्तनेव मन्यन्ते । निर्वाणाऽभावेनाऽपश्चिमतनवो न तां यान्ति ॥५।।
दिगम्बर पुराणों में तीर्थकरों के चतुर्विधि संघ की संख्या दी है, जिसमें ६-७ गुणस्थान वाली साध्वीयों की संख्या भी स्पष्ट है। दिगम्बर मतोत्पत्ति ]
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