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आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ]
[ओसवाल संवत् ५७४-५७७
ने प्रामोप्राम अजैनों को जैन बनाकर महाजन संघ में वृद्धि की और राजा विक्रम के समय तक तो महाजन संघ अपनी शाखा प्रतिशाखा से इतना फला फूला कि उनकी संख्या करोड़ों तक पहुँच गई और प्रत्येक पाम नगर में प्रसरित भी हो गया । अतः इसका संगठन बल मजबूत बनाने के लिये ऐसी पंचायतें स्थापित करदी कि संघ एवं समाज का सब कार्य उन पंचायतों द्वारा होने लगा वे पंचायतें केवल कल्पना मात्र से नहीं बनाई पर खास शास्त्रों के अनुसार बनाई गई थीं जैसे जैनागमों में लिखा है कि देवताओं की व्यवस्था के लिये स्वर्ग में एक इन्द्र होता है उनके कार्य में मददगार सामानीक देव और सलाहकार तीन प्रकार की परिषदा के देव भी होते हैं जैसे--
१--सामानीक देव-इन्द्र कोई भी काम करना चाहे तो पहले सामानीक देवों के साथ परामर्श करे जब सामानीक देव सहमत हो जाय तब ही इन्द्र वह कार्य कर सकता है । जैसे राजा के उमराव ।
२-आभ्यान्तर परिषदा के देव--जिस कार्य को इन्द्र करना चाहे तो पहिले आभ्यान्तर परिषदा के देवताओं की सलाह लेता है और वे सलाह दे दें तब ही कार्य किया जाय । जैसे राजा के मुत्सद्दी ।
३-मध्यम परिषदा के देवताओं से विचार करे । जैसे कार्य कर्ता बुद्धिमान ।
४-बाह्य परिषदा के देवताओं ( श्राम जनरल ) को एकत्र कर हुक्म सुनादें कि हम व सामानीक देव, या आभ्यान्तर परिषदा के देव और मध्यम परिषदा के देवों ने निर्णय कर लिया है कि अमुक कार्य किया जाय अतः तुम इस कार्य को शीघ्र करो।
इसी प्रकार हमारी पंचायतों में भी १--इन्द्र के स्थान एक संघपति या नगर सेठ बनाया गया। २-सामानीक देवों के स्थान-चार चौधरी एवं पांच पंच ३-- श्राभ्यान्तर परिषदा के देवों के स्थान प्रतिष्ठित बुद्धिवान समाज के शुभ चिन्तक सलाह देने वाले। ४-मध्यम परिषदा के देवों के स्थान कार्य पद्धति के ज्ञाता । ५-बाह्य परिषदा के देवों के स्थान-आम पब्लिक ।
इस प्रकार की व्यवस्था करने में न तो निायकता रहती है और न नायक निरंकुश ही बन जाते हैं और कार्य निर्विघ्नतया सफल हो जाता है । महाजन संघ में इस प्रकार की पंचायतें बड़े २ नगरों में ही नहीं पर छोटे २ ग्रामों में भी थीं और वे केवल एक महाजन संघ का ही काम नहीं करती पर तमाम नगर का भी काम कर लेती थीं केवल नागरिकों को ही नहीं पर सत्ताधीश राजाओं को भी महाजनों की पंचायतों पर पूर्ण विश्वास था पहिले जमाने में इस प्रकार इन्साफी पंचायतें होने से किसी को भी राज अदालत देखने का समय ही नहीं मिलता था। कदाचित् कई राज अदालत में चला भी जाता तो आखिर राज भी उनका इंसाफ पंचायतों पर छोड़ देते थे । जब तक पदाधिकारी पंचों के हृदय में न्याय सत्य सफाई और निष्पक्षता रही वहाँ तक पंचायतों का कार्य व्यवस्था के साथ चलता रहा और जनता उन पंचों को परमेश्वर ही कहती थी। जिसका एक दो उदाहरण यहाँ लिख दिया जाता है ।
१-कुसमपुर नगर के राजा के दिल में इस बात की शंका पैदा हुई कि दुनियां कहती है कि पंचों में परमेश्वर हैं तो क्या यह बात सत्य है ? इसकी परीक्षा अवश्य करनी चाहिये ।
गजा ने रात्रि समय वरदत्त सेठ की दुकान पर जाकर कहा सेठजी एक हजार रुपयों की जरू
dain Edu महाजनों की पंचायतियों 1
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