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________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ गते राजकुलद्वारंरथेऽथपृथिवीपतिः, वातायनस्थितो दूराद् दर्शार्य सुहस्तिनम् ॥२८॥ दध्यौचैमुनीन्द्रोऽयं मन्मनः कुमुदोडुपः, कापिदृष्टइवाभाति न स्मरामितुकिंह्यदः ॥२९॥ एवंविमषकुर्वाणो मूच्छितोन्यपतन्नृपः, आः किमेतदिति वदन्दधावेच परिच्छदः ॥३०॥ व्यजनैर्वीज्यमानश्चसिच्यमानश्चचन्दनैः, जातिस्मरणमासाद्योदस्थादवनिशासनः ॥३१॥ सप्राग्जन्मगुरुं ज्ञात्वा, जातिस्मृत्या सुस्तिनम् , तदैव वन्दितुमगाद्रिस्मृतान्य प्रयोजन ॥३२॥ पञ्जाँगस्पृष्ठ भूपीठः सनत्वार्य सुहस्तिनम् , पप्रच्छ जिनधर्मस्य भगवन्की दशं फलम् ॥३३॥ इनके आगे भिक्षुक के भव में दीक्षा लेना और वहाँ से मर कर कुनाल के पुत्र सम्पति होने का वर्णन है। त्वया प्रब्राजितो न स्याँ तदाहंभगवन्यदि, भगवंस्त्व लसादेन प्राप्तोऽहं पदवी भिमान ॥५॥ पुनविज्ञपयामास सुहस्तिन मिलापतिः, अस्पृष्ट जिनधर्मस्य का गतिः स्यातनोमम ॥५६॥ तदादिशत में किंचित्प्रसीदत करोमि किम्, भवामि नानृणो ऽहं वः पूर्व जन्मोपकारिणम् ॥५७॥ जन्मन्यत्रापि गुरखोयूयं मे पूर्वजन्मवत्, अनुगृह्णीत मा धर्मपुत्रं कर्त्तव्य शिक्षया ॥५८॥ कृपालुरादि देशार्य सुहस्ति भगवान्नृपम् , जिनधर्मं प्रपद्यस्व परत्रेह च शर्मणो ५९॥ स्वर्गः स्याद पवर्गो बामुत्रर्हिददर्मशालिनाम् इह हस्त्यश्व काशादि सम्पदश्चोतरोत्तराः ॥६॥ अभ्यग्रही दथनृपस्तदग्रेतदनुज्ञया, अहेन्देवो मुरुःसाधुः प्रमाणं महतो वचः ॥६१॥ अणुव्रतगुणव्रत शिक्षाव्रतं पवित्रतः । प्रधान श्रावको-जज्ञे सम्बतिस्तत्प्रभृत्यपि ॥६२॥ त्रिसन्ध्यमप्प वन्ध्यर्थी जिना_मर्चति, स्मसः साधर्मिकेषु वात्सल्यं वन्धुष्विवचकार व ॥६३॥ स सर्वदाजीवदया तरङ्गितमनाः सुधीः, अवदानरतोदानं दानेभ्योऽभ्यधिकंददो ॥६४॥ आवैताड्य प्रतापाड्यः स चकारा विकारधी, त्रिखंण्डं भरतक्षेत्रं जिनायतान मण्डितम् ॥६५॥ ___ इसके आगे सम्राट सम्प्रति ने जैन धर्म की प्रभावना की जिसका विस्तृत विवरण है। सम्प्रतिश्चिन्तयामास निशीथ समये ऽन्यदा, अनार्येष्वपि साधूनां बिहारं वतर्याम्यहम् ॥८९॥ इत्यनार्यानादि देशराजा दध्वं कर मम, तथा तथास्मत्पुरुषा मार्गयन्ति यथा यथा ॥६॥ ततः प्रेषीदनार्येषु साधुवेषधरान्नरान्, से सम्प्रत्याज्ञयानार्यानेवमन्वशिषन्भृशम् ॥१॥ सम्राट ने अनार्य देश में अपने सुभट्टों को भेजकर साधुओं के विहार योग्य क्षेत्र तैयार करके साधुओं को भेजे । एवं सम्प्रति राजेन स्वशक्तया बुद्धिगर्भर्या, देशाः साधु बिहाराही अनार्यऽपि चक्ररे ॥१०२॥ राज्ञा प्रग्जन्मरकुलं वीभत्सं स्मरतानिजम्, महासत्राण्य कार्यन्तपूरेषुचतुर्वपि ॥१०॥ सम्प्रति ने नगर के चारों दरवाजे भोजनशाला खुला दी इतना ही क्यों पर नगर के तब व्यापारियों को भी कह दिया कि साधुओं को जिस वस्तु की जरूरत हो तुम दिया करो और उसकी कीमत राज के खजाने से ले जाया करो महा-हा यह कैसी उद्धारता? यह कैसी भक्ति पर यह था जैननिया के आचार से खिलाफ । यही कारण था कि आगे चल कर इसका फल यह हुआ, कि भाय महागिरि और आर्य सुस्तो के आपस में संभोग तुट गया । X x X ३०१ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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