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________________ वि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पार्थिवः सम्प्रतिरपि पालयज श्रावक व्रग्म्, पूर्णायुर्देव्य भूसिर्किं क्रमेणचगमिष्यति ॥१२७॥ "परिशिष्ट पर्व वर्ग ११ वाँ" अहा हा ! धन्य है सम्राट् सम्प्रति और धन्य है उनके गुरु आचार्य सुहस्ती सूरि को कि जिन्हों के हृदय में जैन धर्म प्रचार की इतनी गहरी लग्न थी कि सम्राट ने किस प्रकार से प्राणपण से अपनी प्रतिज्ञा का पालन किया कि जैनधर्म के प्रचारार्थ अपना तन मन और धन सब लगा दिया तथा उस समय के श्रमणगण किसी प्रकार की आपत्तियों एवं कठिनाइयों की परवाह नहीं करते हुये और अपने प्राणों की बाजी लगा के भी जैन धर्म का प्रचार किया पर परिसहों से डर कर तनिक भी पीछे क़दम नहीं रक्खे एवं जैनधर्म के प्रचार निमित प्राणों को अर्पण कर दिया। जब भारत से लगा कर अबिस्तान, अफगानिस्तान, तुर्किस्तान, ईरान, यूनान, मिश्र, तिब्बत, चीन, ब्रह्मा, आसाम, लंका, अफ्रीका और अमेरिका तक के प्रदेशों में जैनधर्म का प्रचार हो गया तो इसको चिरस्थायी बना रखने के लिये सम्राट् सम्प्रति ने वहाँ कई जैनमंदिरों का भी निर्माण करवा दिया कि जिससे वहाँ के निवासियों की धर्म पर श्रद्धा सदैव के लिये बनी रहे। __आज उन प्रदेशों में भले ही जैनधर्मापासक न रहे हों पर सम्राट सम्प्रति के बनाये हये मन्दिर मतियों का अस्तित्व तो आज भी विद्यमान है जो खोद काम करते समय भूगर्भ से कई जैन मूर्तियां वगैरह स्मारक चिन्ह उपलब्ध होते हैं जैसे कि: १-आस्ट्रिया-हंगरी प्रान्त के बुडापेस्ट ग्राम के एक किसान के खेत में खोद काम करते समय भूमि से भगवान महावीर की भूर्ति निकली वह आज भी वहाँ के म्यूजियम में सुरक्षित रक्खी हुई है । २-अमेरिका के एक भूभाग से ताम्रमय बड़ा सिद्धचक्रजी का गटा निकला है। ३-मंगोलिया प्रान्त में तो भूगर्भ से इतने जनस्मारक निकले हैं कि एक भारतीय पुरातत्व विद्वान् ने पाश्चात्त्यदेशों की यात्रा की थी और उसने अपनी आंखों से देखा है उसके विषय में एक लेख 'बम्बई समाचार' नामक प्रसिद्ध दैनिक अखबार ता० ४ अगस्त १९३४ के अंक में जैन चर्च शीर्षक से मुद्रित करवाया था जिसमें श्राप लिखते हैं कि एक समय इस प्रान्त में जैनों की घनी बस्ती थी और जैनों के अनेक मंदिर भी वहां थे जिनके कि आज वहाँ कई भग्न मूर्तियों के खण्डहर एवं तौरण वगैरह भूगर्भ से निकलते हैं। मेरा तो यहाँ तक खयाल है कि जैन ग्रन्थों में महाविदेह क्षेत्र का उल्लेख किया है । शायद जैनों का महाविदेह यही हो कि किसी समय यहां जैनों की घन वस्ती थी । इससे भी यही सिद्ध होता है कि आर्यसुहस्तीसूरि और सम्राट् सम्प्रति के समय भारत और भारत के अतिरिक्त पाश्चात्य देशों में भी जैनधर्म का प्रचुरता से प्रचार था । यही कारण है कि आज कल के इतिहासकर कहते हैं एवं अपने ग्रन्थों में लिखते हैं कि एक समय जैन जनता की संख्या ४०८००००. ०० चालीस करोड़ थी। 8 "भारत में पहिले १००.०००००जैन थे। इसी मत से निकल कर लोग अन्य मतों में प्रविष्ट होने लगे। इसी कारण से इनकी संख्या घट गई है। यह धर्म अति प्राचीन है। इस धर्म के नियम सब उत्तम हैं जिनमें देश को असीम लाभ पहुंचा है।" -बाबू कृष्णलाल बनर्जा ३०२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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