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________________ वि० पू० ३८६ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास प्राचार्य श्री ने कहा कि हे राजन् ! आप जानते हो कि इस प्रकार की सहायता से हम कब तक काम कर सकते हैं ? जब मंगलाचरण में ही हम सहायता के अधीन बन जावे तो आगे चल कर हम क्या काम कर सकेंगे ? अतः आपकी शुभ कामना अच्छी है, पर हम इस बात को बिल्कुल नहीं चाहते हैं।। __ बस, सरिजी ने अपने १०० साधुओं के साय उपकेशपुर से विहार कर दिया और क्रमशः सिन्ध प्रान्त की ओर आगे बढ़ने लगे। रास्ते में जैन श्रावकों के मकान आते रहे, तब तक तो उनको किसी प्रकार की तकलीफ नहीं हुई, पर जब केवल उन वाममार्गियों के ही ग्राम आये तो उन लोगों ने जैनसाधुओं को देख उनके साथ अनेक कुचेष्टायें करनी शुरू कर दी अर्थात् नाना प्रकार के परिसह देने लगे। इस पर भी न खाने को भोजन, न पीने को पानी, न ठहरने को मकान तो फिर सन्मान और स्वागत की तो आशा ही क्या ? हां स्वागत के बदले संकट और भक्ति के स्थान पग २ पर कठिनाइयां। यहां तक कि वे लोग साधुओं को पत्थर और लकड़ियों से मारने पीटने में भी कमी नहीं रखते थे। कभी कभी तो वे भूखे-प्यासे साधु स्थान के अभाव में जंगलों में ही रात्रि व्यतीत करते थे, इत्यादि । नये जैन बनाने में कितनी मुसीबतें उठानी पड़ती हैं यह तो वे भुक्त-भोगी ही जानते हैं । खैर, फिर भी जिन परोपकारी महापुरुषों ने जन कल्याण का बीड़ा उठा लिया हो उनके सामने सुख और दुःख कौन गिनती में है । जैसे चलता हुआ पंथी आम्र वृक्ष को पत्थर मारता है, पर आम्र वृक्ष तो उसको मधुर फल ही देता है । इसी भांति वे अज्ञानी जीव सूरिजी को कितना ही कष्ट दें, पर वे तो उनको शान्त वचनों से समझा कर धर्म-पथ पर लाने की कोशिश करते थे और सूरीरश्वरजी का तप-तेज एवं अतिशय प्रभाव का असर उन अज्ञ लोगों पर इस प्रकार होता था कि वह शान्ति मूर्ति साधुओं को देख कर अपने आप ही उनके सद्गुणों पर मुग्ध हो जाते थे। एक समय का जिक्र है कि सूरीश्वरजी अपने शिष्य मंडल के साथ एक भयंकर जंगल से जा रहे थे । इतने में पीछे से कई घुड़सवार बड़े ही वेग से आ रहे थे । उनके हाथों में विद्युत के सदृश्य चमकते हुये शस्त्र और एक ओर धनुषबान थे। इन सवारों के भय से बिचारे मृगादि बनचर जीव भय-भ्रान्त होकर दूर २ भागते जा रहे थे । इस कारुण्य दृश्य को देखते ही उन करुणा के समुद्र सूरीश्वरजी का हृदय दया से लबालब भर आया और उन्होंने घुड़सवारों को सम्बोधन करते हुये कहा कि ठहरो, ठहरो ! इस आवाज को सुन कर मुख्य घुड़सवार ने थोड़ा सा मुह मोड़ कर सूरिजी के सामने देखा और कहा कि तुम्हें क्या जरूरत है और तुम क्या कहना चाहते हो ? जल्दी से कह दो, हमारी शिकार जा रही है। जब घुड़सवार ने सूग्जिी की ओर टकटकी लगा कर देखा तो सूरिजी के तप तेज एवं अतिशय प्रभाव तथा शांत मुद्रा देख कर उसने घोड़े से नीचे उतर कर सूरिजी के पास आकर कहा । घुड़सवार-आप कौन हैं ? । सूरिजी-हम 'अहिंसापरमोधर्म' का उपदेश करने वाले साधु हैं। घुड़०-आप कहां से आये और कहां जाते हो ? १उपकेशपुरं गत्वा, सिन्धु देशं ततो गतः । दुस्सहानेक कष्टानि से हे तत्र महा मुनिः ।। एकदा राज पुत्रोहि कक नामा महामतिः । आखेटे गत आलेभेऽहिंसा धर्म च सूरितः ॥ 'उपकेशगच्छ चरित्र" २१६ Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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