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________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् १४ सूरिजी की तो पहिले से ही भावना थी, फिर देवी के कहने ने तो और भी पुष्ट बना दी। आचार्य ! श्री ने ठीक निश्चय कर लिया कि चार्तुमास समाप्त होते ही सिंध भूमि की ओर विहार करना है । इधर तो चर्तुमास खत्म होने को था, उधर सूरीश्वरजी ने राजाउत्पलदेव मंत्री उहड़ वगैरह 'घ अप्रेश्वरों की सलाह ली कि मेरा विचार सिन्ध प्रान्तकी ओर विहार करने का है, इसमें आपकी क्या राय है ? राजा व मंत्रीने बड़ी प्रसन्नता के साथ अर्ज की कि हे पूज्यतर ! आपका यह विचार तो अत्युत्तम है एवं बड़ा भारी उपकार का काम है और यह प्रवृति आपके पूर्वजों से ही चली आई है और यह कार्य आप जैसे समर्थ पुरुषों का ही है; पर पहिले आप इस बात को अच्छी तरह से सोच लीजिये कि सिन्धप्रान्त में विहार करना साधारण बात नहीं पर एक टेड़ी खीर है, क्योंकि वहाँ सर्वत्र पाखण्डियों का सामाज्य जमा हुआ है । वहाँ जाने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा, अतः आप अपने साधुओं को शक्ति पर विचार कर लीजिये। इस पर सूरिजी ने कहा कि नरेन्द्र ! आप जानते हो कि बिना परिश्रम लाभ भी कहां है ? और जितना अधिक कष्ट है उतना लाभ भी अधिक है । आप जानते हो कि आपके मरुधर में आने में कौन सा कम कष्ट सहन करना पड़ा था ? हां, साधुओं को पूछना जरूरी बात है। अतः मैं साधुओं को पूछ लुगा पर मुझे विश्वास है कि मेरे साधुओं में एक भी ऐसा साधु न होगा जो परिसह के सहन करने में कायरता दिखा दे । राजा ने कहा ठीक है, हम लोगों को तो आपकी सेवा-एवं दर्शन का अन्तराय रहेगा; पर यह कार्य भी बड़े भारी उपकार का है । अतः हम लोग आप के इस उत्तम कार्य में सहमत हैं । __ एक दिन सूरीश्वरजी ने अपने श्रमण संघ को एकत्र कर अपने विचार प्रगट कर दिये कि मेरे सिन्ध प्रान्त में विहार करने का विचार है पर उधर विहार करने में बहुत कठिनाइये और परिसह उपस्थित होने की संभावना है, क्योंकि वहाँ न तो श्रावक हैं और न कोई स्वागत करने वाला ही है । इतना ही क्यों पर उल्टा उपद्रव करने वाले हैं, पर साथ में यह भी समझ लेना कि जितना कष्ट ज्यादा है उतना ही लाभ अधिक है। अतः जो साधु इन सब बातों को सहन करने वाले हों वह मेरे साथ चलने को तैयार हो जायें और शेष साधुओं के लिये मैं यहां विचरने की आज्ञा दे देता हूँ। सूरीश्वरजी के वचन सुन कर ऐसा कौन साधु था कि जिसके हृदय में उत्साह की बिजली न चमक उठे । वस, मानो गिरिराज की गुफाओं से शेर गर्जना कर मैदान में आते हैं, वैसे ही मुनिवर्ग बोल उठा कि हे पूज्यवर ! हमारा जीवन ही इस काम के लिये है, एक नहीं पर हजारों संकट आजावें तो क्या परवाह है ? आप अपनी वृद्धावस्था में भी इतना साहस दिखला रहे हैं तो क्या हम इस लाभ से वंचित रहने वाले हैं ? अर्थात् हम सब आपश्री के साथ विहार करने के लिये कटिबद्ध हैं-तैयार हैं। सूरीश्वरजी ने साधुगण के वीरता के वचन सुन कर यह निश्चय कर लिया कि इस कार्य में हमें अवश्य सफलता मिलेगी । बस, चर्तुमास समाप्त होते ही प्राचार्यश्री ने अपने १०० साधुओं को अपने साथ चलने की और शेष साधुओं को मरुधर में विहार करने की आज्ञा दे दी; जिसको साधुओं ने शिरोधार्यकर ली। राजा और मंत्री ने प्रार्थना की कि हे पूज्यवर ! सिन्ध प्रान्त एक नया क्षेत्र है । वहाँ के सब लोग मिथ्यात्वी हैं । श्रापको उधर विहार में असुविधा रहेगी , अतः हमारा विचार है कि कई श्रावक एवं आदमी आपकी सेवार्थ साथ में भेज दूं। wimanawwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww.v....A nur .... vvvvvvvvvanvarMaria nanawanamaina २१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.ainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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