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घि० पू० ३८६ वर्ष ]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
विचार साधुओं के सामने प्रगट किया तो साधुओं ने अपनी सम्मति दे दी। कारण, एक तो साधुओं को भ्रमण करने का दिल रहा करता है, दूसरे नवदीक्षित मुनियों को तीर्थंकरों के कल्याणक भूमि की यात्रा भी करनी थी; अतः पूर्व की ओर विहार करना निश्चय कर लिया।
सूरीश्वरजी महाराज ने बहुत से साधुओं को मरुधर में विहार करने की आज्ञा दे दी और ५०० साधुओं को अपने साथ लेकर पूर्व की ओर विहार कर दिया क्रमशः शौरीपुर तथा मथुरा की यात्रा कर के वहाँ से हस्तनापुर बनारस होते हुये अंग बंग कलिंगादि पूर्व प्रान्त में घूम घूम कर सम्मेतशिखर पावापुर) चम्पापुर वगैरह तीर्थों की यात्रा की और राजगृह वगैरह नगरों के श्रावकों को धर्मोपदेश सुना कर बहुत उपकार किया। इधर हेमला खण्डगिरी उदयगिरि तीर्थों की यात्रा कर अपने जीवन को पवित्र बनाया।
___ उधर मरुधर में रहे हुये साधुओं ने एक सम्मेतशिखर तीर्थ का विराट संघ निकाल कर यात्रा निमित्त पूर्व में गये यह बात प्राचार्य यक्षदेवसूरि ने सुनी तो वे भी अपने साधुओं के साथ जाकर संघ में शामिल हुये; जिससे मरुधर वासियों का उत्साह बहुत ही बढ़ गया और उन सब लोगों ने सूरीश्वरजी से प्रार्थना की कि हे पूज्यवर ! श्राप तो पूर्व में पधार कर हम लोगों को भूल ही गये । अब आप कृपा करके मरुधर की ओर विहार करावें अर्थात इस संघ के साथ ही मरुभूमि की ओर पधारें।
- सूरीश्वरजी को भी कई अर्सा पूर्व में विहार करने को हो गये थे, अतः संघ के साथ आने वाले मुनियों को पूर्व में विचरने की आज्ञा देदी और आप सपरिवार संघ के साथ यात्रा कर पुनः मरूधर में पधार गये और राजा उत्पलदेव के आग्रह से वह चतुर्मास उपकेशपुर में ही किया । आप श्री के उपकेशपुर में विराजने से उपकेशपुर और आसपास के ग्रामों में धर्म की खूब ही उन्नति एवं प्रभावना हुई।
___ एक समय आपने रात्रि में श्रात्म-चितवन करते समय यह विचार किया कि कहाँ आचार्य स्वयंप्रभसूरि और रत्नप्रभसूरि कि जिन्होंने अनेकानेक कठिनाइयों को सहन कर वाममार्गियों जैसे पोखण्ड का निकन्दनकर जैनधर्म का प्रचार कर हजारों लाखों करोड़ों प्राणियों का उद्धार किया और कहाँ मैं ? क्या मैं उन पूर्वजों के बनाये हुये श्रावकों पर ही अपना जीवन व्यतीत करदूंगा ? नहीं, मुझे भी किसी नये प्रदेश में जाकर जैनधर्म का प्रचार करना चाहिये इत्यादि विचार करते थे कि इतने में सच्चायकादेवी आकर कहने लगी कि भो
आचार्य ! आप इतना क्या विचार करते हो ? यदि आप पुरुषार्थ करें तो वही कार्यश्राप कर सकते हो जो आपके पूर्वजों ने किया है। श्राप के लिये यह सिन्ध प्रान्त नजदीक ही है और वहाँ भी वाममार्गियों का इतना ही जोर है जितना कि एक समय इस मरुभूमि में था, मैं इस बात को दावे के साथ कहती हूँ कि यदि आप सिंध प्रांत में पधारें तो आपको वही सफलता मिलेगी जो आचार्य स्वयंप्रभ और रत्नप्रभसूरि को मिली थी।
आपका विहार क्षेत्र इतका विशाल था कि वे किसी भी कठिनाई या परिसहों की परवाह भी नहीं करते थे। सम्मेतशिजर तीर्थ के आसपास भूमि में विहार कर भनेक भव्यों को जैनधर्म की दीक्षा दी थी। आज जो जैनधर्म के बिछड़े हुई 'सराकजाति' वगैरह के लोग जैनधर्म से पतित हुये पाये जाते हैं वे भी उन पाश्वनाथ संतानियों के बनाये हये श्रावकही थे। भले ही जैनधर्म के उपदेशों का संयोग न होने से वह कैनधर्म को भूल गये हों परन्तु जैनों का संस्कार भभी तक उनके अन्दर विद्यमान हैं। अहिंसां धर्म के तो वे पूर्णतया पालक ही हैं। इतना ही क्यों पर वे अपने देव पार्श्वनाथ को ही मानते हैं और उनके जो गौत्र हैं उनके भी अन्तदेव, धर्मदेव' आदिदेव वगैरह २ नाम हैं। ये सब बातें उनको पूर्व जैन होना ही साबित कर रही हैं।
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