________________
आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् १४
Anamnavinnn.mmm
७--प्राचार्य यक्षदेवसूरिः क्षात्रः सप्तम पट्टधृक् समभवद्देवस्तु यक्षोत्तरः, सूरिः सिन्धुजल प्रवाह भरिते प्रान्ते सुतं भूभृतः । ककं ज्ञानसमूह मादिशदयं तत्याज वेध्यं यथा, क्षत्रान् रुद्रट वंशजानुप दिशद्दीक्षा च तस्यास्तटे॥
चार्य यक्षदेवसूरि--श्राप अद्वितीय प्रभावशाली थे। पिछले प्रकरण में श्राप पढ़ पाये हैं कि आचार्य रत्नप्रभसूरि के पास वीरधवल नामक उपाध्याय थे । महाजनसंघ की स्थापना का सब कार्य प्रापश्री के हाथों से ही सम्पादन हुआ था। आपश्री जैसे विशुद्ध क्षत्रिय घंश के वीर थे, वैसे ही आप धर्म के कार्य भी वीरता के साथ किये
करते थे। जैनधर्म का प्रचार और वादियों के साथ शास्त्रार्थ करने में तो आप विजयी सुभट की तरह सिद्ध हस्त ही थे।
प्राचार्य कनकप्रभसूरि के साथ श्राप रत्नप्रभसूरि सा व्यवहार रखते थे। समय समय आप उनके दर्शनार्थ जाते थे अतः दोनों आचार्य एवं श्राप दोनों के श्रमण संघ में विनय व्यवहार और धर्म-स्नेह दिन प्रति दिन बढ़ता ही रहता था।
एक समय आचार्य यक्षदेवसूरि अपने शिष्यमण्डल के साथ मरुधर को उपदेशामृत का सिंचन करते हुये क्रमशः कोरंटपुर पधार रहे थे, जब यह खबर वहां के श्रीसंघ को मिली तो उनके उत्साह का पार नहीं रहा । एक कोरंटपुर ही क्यों पर उनके आस-पास के नगरों में खबर होने से सूरिजी के दर्शन एवं स्वागत के लिये मानो मानव मेदिनी एक दम उमड़ उठी हो? और बड़े ही समारोह के साथ सूरिजी को नगर प्रवेश कराया। अहा हा ! आज कोरंटपुर के घर घर में यह खुशियां मनाई जारही कि आज अपना अहोभाग्य है कि सूरीश्वरजी का पधारना हुआ है इत्यादि । सूरीश्वरजी ने संघ के साथ महावीर मंदिर के दर्शन किये। तत्पश्चात् मंगलाचरण के साथ थोड़ी पर सारगर्भित देशना दी। जिसको सुनकर उपस्थित लोगों के हृदय में वैराग्य के अंकूर उत्पन्न हुये । फिर शासन की प्रभावना के साथ सभा विसर्जन हुई।
सूरीश्वरजी का उपदेश हमेशा त्याग वैराग्य पर ही विशेष होता था, यही कारण था कि आपके श्रमणश्रमणियों की संख्या खूब बढ़ रही थी। इसी प्रकार आपने जैनेतरों को जैनधर्म में दीक्षित कर श्राद्ध संव्या भी बढ़ाई।
आचार्य यक्षदेवसूरि को एक समय पूर्व के भक्त लोगों की भक्ति एवं सम्मेतशिखरादि तीर्थों की यात्रा स्मृति में आई तो श्रापका विचार उधर की तरफ विहार करने का हो आया । जब आचार्यश्री ने अपना श्रीयक्षदेवस्तंत्पट्टे, पूर्वाचल इवाऽर्यमा । मरिरभ्युदितोरेजे, तमस्तोमहरोऽङ्गिनाम् ।।
उपकेशगच्छ चरित्र
२१३ www.jainelibrary.org
Jain Education International
For Private & Personal Use Only