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वि० सं० ११५–१५७ वर्ष ]
| भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
विद्वानाचार्य थे । इस संघ के शकटायान नामक आचार्य ने स्त्रियों को मोक्ष और केवली आहार करने की सिद्धि में छोटे-छोटे दो ग्रन्थों का निर्माण किया जिनको इस लेख के अन्दर उद्धृत कर दिये हैं।
४- काष्टासंघ–इस संघ की स्थापना - आदि पुराण के कर्ता जिनसेनाचार्य के गुरुभाई विनयसेन और विनयसेन का शिष्य कुमारसेन द्वारा हुई है कुमारसेन ने नन्दि तट नामक नगर में सन्यास धारण किया पर बाद में सन्यास पद से भ्रष्ट होकर दूसरे किसी के पास पुनः दीक्षा न लेकर उसने अपना अलग संघ स्थापन कर काष्टा संघ नाम रख दिया । और कुमारसेन के समय में ही यह संघ वागड़ प्रान्त में फैल गया था दर्शनसारग्रन्थ के कर्ता देवसेनाचार्य ने इस संघ की उत्पति का समय विक्रम सं० ७५३ का बतलाया है
और इसको भी पांच जैनाभासों में गिना है-और कुमारसेनको मिथ्यात्वी तथा उन्मार्ग प्रवृतक बतलाया है। इस संघ की मान्यता दिगम्बर मत्त से भिन्न है उसका योड़ा सा नमूना
(१)-- स्त्रियों को मुनि दीक्षा देने का विधान कर दिया। (२)-क्षुल्लक यानि छोटे साधुओं को वीरचर्चा ( अतापनायोग ) की आज्ञा देदो । (३)-मयूर पिच्छी के स्थान गाय के वालों की पिच्छी रखने का विधान किया।
(४)-रात्रि भोजन पहलावत की भावना माना जाता था जिसको छट्ठा अणुव्रत नाम का पृथक व्रत मानकर छट्ठा व्रत स्थापना किया।
(५)-भागम शास्त्र और प्रायश्चितादि नये ग्रन्थ बनाकर मिथ्यात्व फैलाया इस संघ में नन्दितट माथुर वागड़ और लाडवागड आदि कई भेद हैं पर कई लोग माथुर संघ को अलग भी मानते हैं ।
५-माथुर संघ-इसका दूसरा नाम निः पिच्छी संघ भी है इस संघ के मुनि मयूर पिच्छी तथा गाय के पुच्छ के बालों की पिच्छी नहीं रखते हैं कई लोग इस संघ को काष्ठा संघ की एक शाखा बतलाते हैं पर काष्ठा संघ गाय के पुच्छ के बाल की पिच्छी रखते हैं अतः यह संघ अलग ही माना जाता है दर्शनसार के कर्ता देवसेन लिखते हैं कि काष्ठा संघ के बाद २०० वर्षों से माथुर संघ की उत्पति हुई है और आचार्य रामसेन ने मथुरा में उस संघ की स्थापना की थी इस संघ की मान्यता है कि आपने संघ के प्राचार्य की कराई प्रतिष्ठा वाली मूर्ति को वन्दन करना दूसरों के कराई मूर्ति को वन्दन नहीं करना इसी प्रकार अपने संघ के मुनियों को वन्दन करना दूसरों को नहीं यह एक ममत्व भाव का ही कारण है इस संध में धर्म परीक्षा सुभाषित रत्नसंदोह आदि प्रन्थों के कर्ता अमितगति प्राचार्य हुए हैं।
दिगम्बर समुदाय में उपरोक्त संघ प्राचीन समय में उत्पन्न हुए पर यह प्रथा वहाँ तक ही नहीं रूक गई थी परन्तु अर्वाचीन समय में भी उनका प्रभाव जाहिर रहा है जैसे .....।
१-तारणपंथ-इस पन्थ के स्थापक एक तारण स्वामि नाम का साधु विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में हुए । जैसे श्वेताम्बर समुदाय में लोकाशाह ने मूर्ति पूजा का निषेध कर अपना पन्थ चलाया था वैसे ही दिगम्बरमत में तारणस्वामि ने मूर्तिपूजा का विरोध कर नया पन्थ चलाया परन्तु तारणपन्थ में श्रुत सिद्धान्त की पुष्पादि द्रव्यों से पूजा करते हैं जिसमें भी तारणस्वामि के बनाये हुए ५४ ग्रन्थ हैं उसकी पूजा भक्ति विशेष किया करते हैं।
२- तेरहपन्थी - जब दिगम्बर समुदाय में भट्टारकों का जोर जुल्म बढ़ने लगा अर्थात् चरम सीमा तक पहुँच गया उस हालत में वि० सं० १६८३ के आस पास तेरहपन्थ नाम का एक नया पन्थ का प्रादुर्भाव Jain Ed 4 8 nternational
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