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आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ५१५–५५७
श्रवण वेलगुल की मल्लिषण प्रशस्ति में वज्रनन्दि के नव स्तोत्रनामक ग्रंथ का उल्लेख कर बहुत प्रशंसा करते हुए प्रशस्तिकर "सकलाईत्प्रवचनप्रपञ्चान्तर्भाव प्रवणवर सन्दर्भसुभगम" का विशेषण से भूषीत किया है ।
दक्षिण प्रान्त की मथुरा (मदुग) नगरी में इस संघ की स्थापना हुई मथुरा द्राविड़ देश में होने से इस संघ का नाम 'द्राविड़' संघ हुआ हैं तथा द्रमिल संघ इसका दूसरा नाम है तथा पुन्नाटसंघ कि जिसमें हरिवंश पुराग के कर्ता जिनसेनाचार्य हुए हैं वह भी द्राविड़ संघ का नामान्तर हैं। इस संघ में भी कई अंतर्भेद है क्योंकि बादीराजसूरि को द्राविड़ संघ के अन्तर्गत नंदि संघ की अरंगलि शाखा के आचार्य बतलाये हैं। इस संघ में कवि एवं तार्किक और शाब्दिक प्रसिद्ध बादिराजसूरि त्रैविद्य विद्येश्वर, श्रीपालदेव, रूपसिद्धि व्याकरण के कर्ता दयापाल मुनि जिनसेन वगैरह कई विद्वान हुए यह भी कहा जाता है कि तामील एवं कनड़ी साहित्य में इस संघ के बहुत ग्रन्थ मिलते हैं।
दर्शनसार ग्रंथ के कर्ता इस संघ की उत्पत्ति वि. सं. ५३५ में बतलाई है और पांच जैनाभासों में इस संघ की भी गणना की है। इस संघ को श्रद्धा और प्ररूपना मूलसंघ से नहीं मिलती हैं अतः कतिपय बातें यहां दर्ज करदी जाती हैं जो विद्यानन्दिने अपने ग्रन्थों में लिखी हैं ।
१-- अप्राशुक चना खाने में मुनि को दोष नहीं लगता है । २–प्रायश्चित वगैरह के कई शास्त्रों को रद्दोबदल कर नये बना दिये हैं। ३-बीज मात्र में जीव नहीं होते हैं ! ४-मुनियों को खड़े रह कर आहार करने की जरूरत नहीं है । ५-मुनियों के लिये प्रासुक अप्रासुक की कैद क्यों होनी चाहिये । ६-मुनियों के लिये सावद्य और गृहकल्पित दोष नहीं मानना चाहिये।
७-उसने लोगों से खेती वसति वाणज्यादि करवाने का उपदेश देने अदोष बतला दिया था तथा कचा जल में भी जीव नहीं मान कर उसका उपयोग करने लग गया था इत्यादि तथा दिगम्बर ग्रन्थ कारों ने भी कई प्रन्थों में इस विषय के लेख भी लिख दिया है +
उपरोक्त बातों के लिए निश्चयात्मिक तो जब ही कहा जा सकता है कि इस संघ वालों का बनाया हुआ यतिप्राचार या श्रावकाचार वगैरह ग्रन्थ उपलब्ध हो सकें और उन ग्रन्थों के अन्दर उपरोक्त बातों का प्रतिपादन किया हुआ मिले
३-यापनीय संघ-इस संघ की स्थापना कल्याण नगर से विक्रम सं० ७०३ में हुई है कहा जाता है कि श्वेताम्बराचार्य श्रीकलस द्वारा इस संघ का प्रार्दुभाव हुआ है। "कल्लाणे वर नयरे सत्तसए पंच उतरे जादे । जवनिय संघ भट्टो सिरि कलसादो हु सेवड़ दो ॥"
शकटायन व्याकरण कर्ता श्रुतकेवली देशीयाचार्य शकटायन तथा पाल्यकीर्ति वगैरह इस संघ के + पाषाण स्फोटितं तोयं धटीयंत्रेण ताडितं । सद्यसन्तप्तवापीनं प्रासुकं जल मुच्यते ॥३॥
'भा० शिवकोटी कृत रत्नमाला' मुहर्त गालितं तोयं प्रासुकं प्राहर द्वयं । उष्णादेवामहोरात्र मात समुछितं तभवेत् ॥११६॥ "वृक्ष पर्णोपरी पतित्व यज्जलं मुन्यु परिपतितितत्प्रासुकं” (प्रा० कुदकुद कृत पट प्राभृत की टीका ) विलोडितं यत्र तत्र विक्षिप्तं वस्त्रादिगलिनं जलं ॥ (अभूतसागर कृत तत्त्वार्थ सूत्र की टीका)
दिगम्बर मत के संघ ]
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