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वि० सं० ११५ – १५७ वर्ष ]
| भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
रक्खा है | और इस हठ के कारण ही जैन शासन में फूट डालकर अपना कल्पित मत चलाया है। वास्तव में श्वेताम्बर समुदाय भगवान महावीर की सन्तान परम्परा प्राचीन है और दिगम्बर स्वच्छन्दचारी अर्वाचीन मत है। इसके लिये अब विशेष प्रमाणों की आवश्यकता नहीं है ।
जैसे श्वेताम्बर समुदाय में गण कुल शाखा गच्छ वगैरह भेद प्रभेद हैं वैसे दिगम्बर समुदाय में भी संघ गच्छ और इनके भेद प्रभेद है परन्तु विशेषता यह है कि श्वेताम्बर समुदाय में जितने गच्छ हुए हैं उसमें एक दो गच्छ को छोड़कर सबकी मान्यता- श्रद्धा प्ररूपना एक ही है जब दिगम्बरों में मूलमनोत्पत्ति के बाद में जितने भेद प्रभेद हुए उन सबकी श्रद्धा प्ररूपना पृथक-पृथक है वह भी एक दूसरे से खिलाफ अर्थात् एक दूसरे को मिध्यात्व बतलाते हैं ठीक है जिसकी मूल मान्यता ही मिथ्यात्व से उत्पन्न हुई हो उनका यही हाल होता है पाठकों के अवलोकनार्थ दिगम्बर समुदाय के भेद प्रभेद का थोड़ा हाल यहां लिख दिया जाता है :१ -- मूलसंघ — इस संघ की स्थापना आचार्य श्रर्हब्दली द्वारा हुई और इस संघ के कई भेद प्रभेद जैसे
a- सिंहसंघ-सिंह की गुफा में चतुर्मास करके आने वाले मुनियों का सिंह संघ हुआ इस संघ से नूगा ओर चन्द्रकपाट गच्छ निकला
b -- नंदिसंघ - नंदिवृक्ष के नीचे चतुर्मास करके आने वाले मुनियों का नंदि संघ हुआ और इस संघ से बलात्कारगण तथा सरस्वती एवं पराजीत गच्छ निकला
- सेनसंघ - सेनवृक्ष के नीचे वर्षाकाल व्यतीत करके आने वाले मुनियों का सेन संघ हुआ इस संघ को वृषभ संघ भी कहते हैं और सुरथगण और पुष्कर गच्छ इस संघ की शाखाए हैं
- देवसंघ - देवदत्ता वैश्या के वहां चतुर्मास करके आने वाले मुनियों का नाम देवसंघ हुआ इस संघ से देशीयगण और पुस्तकगच्छ निकला
इन चार संघों की स्थापना का कारण के लिये श्रुतावतार प्रन्थ के करता निखता है कि एक समय श्रदली आचार्य ने सोचा कि अब केवल उदासीनता से ही धर्म नहीं चलेगा पर संघ ममत्व से ही धर्म चलेगा अतः उन्होंने संघों की स्थापना करके धर्म को चलाया
इन संघों के स्थापन का समय श्रुतावतार तथा दर्शनसार ग्रन्थों के अनुसार वीर निर्वाण से ७३३ वर्ष का है तब कवि मेघराज के मतानुसार इन संघों का समय आचार्य कलंकदेव के स्वर्गवास के बाद का है ऐसा एक शिलालेख से सिद्ध होता है क्योंकि अकलंकदेव के पूर्व बने हुए भगवती आराधना पद्मपुराण जिनशतकादि किसी भी ग्रन्थ में इन संघों का उल्लेख नहीं मिलता है और आचार्य अकलंकदेव के समकालीन आचार्य विद्यानन्दी प्रभाचन्द्र माणक्यनंदि आदि आचार्यों के भी अनेक ग्रंथ हैं पर उनमें भी इन संघों का कही भी उल्लेख नहीं हुआ है अगर इन आचार्यों के समय प्रस्तुत संघ होते तो कहीं न कहीं उल्लेख अवश्य किया जाता ? हाँ आचार्य गुणभद्र का उत्तरपुराण में सबसे पहला सेनसंघ का उल्लेख हुआ है और गुणभद्र आचार्य अकलंकदेव के समसमायिक थे अतः यह मानना ठीक होगा कि इन संघों की स्थापना का समय आचार्य कलंक देव के बाद अर्थात् विक्रम की नौवीं शताब्दी के आस पास का ही है
२ - द्राविड़ संघ - जैनेन्द्र व्याकरण के कर्त्ता पूज्यपाद तथा देवानंदि के शिष्य वज्रनंदि द्वारा इस संघ की स्थापना हुई वनन्दि बड़े भारी विद्वान थे । देवसेनसूरि ने आपको 'पाहुड़वेदी महसतो कहा है' तथा
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[ भगवान् महावीर की परम्परा
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