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आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ५१५-५५७
इन पुराणों के श्लोकों में जैन साधुओं का वर्णन किया है जिसमें वस्त्र रजोहरणऔर मुखस्त्रिका वाले साधुओं को जैनसाधु कहा है। अतः निर्विवाद सिद्ध होता है कि जैनसाधु प्राचीन समय से ही वस्त्र रजोहरण और मुखवस्त्रिका रखते थे।
अब आप जरा बौद्धग्रन्थों की ओर दृष्टि डालकर देखिये वे क्या लिखते हैं :
"बौद्धग्रन्थ धम्मपद पर बुद्धघोषाचार्य ने टीका रची है उसमें आप लिखते हैं कि निर्गन्थ ( जैनसाधु ) नीति मर्यादा के लिये वस्त्र रखते हैं। इससे पाया जाता है कि भगवान् महावीर के समय जैन साधु वस्त्र रखते थे !
___ इनके अलावा अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने जैन साहित्य का अवलोकन कर अपना मत प्रकट किया है कि भगवान पार्श्वनाथ के साधु पांचवर्ण के वस्त्र रखते थे तब भगवान महावीर के साधु एक श्वेतवर्ण के वस्त्र रखते थे जिसके लिये सावत्थी नगरी में भगवान् पार्श्वनाथ के संतानिये केशीश्रमणाचार्य और गौतमस्वामी के आपस में चर्चा हुई जिसका वर्णन उत्तराध्ययनसूत्र के २३ वें अध्ययन में विस्तार से लिखा है।
अब जरा खास दिगम्बराचार्यों के प्रमाणों को ही देखिये कि ये अपने ग्रन्थों में क्या लिखते हैं :शय्यासनोपधानानि शास्त्रोपकरणानि च । पूर्व सम्यक समालोच्य प्रतिलिख्य पुनः पुनः ।। १२ ।। गृहणतोऽस्य प्रयत्नेन क्षिपतो वा धरातले । भवत्यविकला साधोरादानसमितिः स्फुटम् ॥ १३ ।।
__श्री शुभचन्द्राचार्य फरमाते हैं कि :- शानार्णव अठारहवां अध्याय "पिण्डं तथोपधिं शय्यामुद्गमोत्पादनादिना । साधो शोधयतः शुद्धा ह्येपणासमिति भवेत् "।।५।।
श्री अमृतचन्द्रसूरि तत्त्वार्थसार में लिखते हैं कि :- ( संवरतत्त्व ) "णाणुवहिं संजमुबहिं तव्वुववहिमण्णमवि उवहिं वा । पयदं गहणिक्खेवो समिड्डी आदाननिक्खेवा" ।।
कुन्दकुन्दाचार्य मूलाचार में कहते हैं: -- राजवार्तिकाकार क्या फरमाते हैं: -
“परमोपेक्षासंयमाभावे तु वीतरागशुद्धात्मानुभूतिभावसंयमरक्षणार्थ विशिष्टसंहननादिशक्त्यभावे सति यद्यपितपः पर्यायशरीरसहकारीभूतमन्नपानसंयमशौचज्ञानोपकरण तृणमयप्रावरणादिक किमपि गृह्णाति तथापि ममत्वं न करोतीति"
इन दिगम्बराचार्यों के कथनानुसार साधु संयम के रक्षार्थ आवश्यक उपधि रख सकते हैं यदि उस उपकरण उपधि पर ममत्व भाव रखते हों तो परिग्रह का कारण कहा जा सकता है । यही बात श्वेताम्बर शास्त्र कहता है कि "मुच्छापरिगहोवुत्तो' किसी भी उपाधि वगैर पर ममत्व भाव रखना परिग्रह है दूसरा नहीं पर कमण्डलु मोरपिच्छा और घास का संस्तारा तो दिगम्बर मुनि भी रखते हैं। यदि ममत्व का तांता नहीं छुटा हो तो इन पर भी मुर्छा आसकती है इतना ही क्यों पर शरीर पर मुर्छा एवं ममत्व अा जाय तो वह भी परिग्रह ही है--यदि जिसके ममत्व का तांता ही टूट गया है तो मरुदेवी जैसों को वस्त्राभूषण पहने हुई को भी केवल ज्ञान होगया था । तो साधुओं के उपधि की तो बात ही क्या है ?
इत्यादि उपरोक्त प्रमाणों से सिद्ध हो जाता है कि दिगम्बरों ने नग्न रहने का केवल एक हठ पकड़ दिगम्बर मतोत्पत्ति ]
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