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________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [वि० पू० ४०० वर्ष कोरन्ट गच्छ की उत्पत्ति भारत में पंचमारा ( कलिकाल ) का पदार्पण हो चुका था। भले ही वह शैशवावस्था का ही क्यों न हो ? पर उसकी मौजूदगी में इतना वृहद् कार्य बिल्कुल निर्विघ्नता से सम्पादन हो जाना तो एक उसके लिए कलंक रूप ही था । अतः वह अपनी करने में उठा क्यों रक्खे ? जब उसको कहीं भी अवकाश न मिला तब उसने कोरंटपुर के संघ को उत्तेजित किया। बात यह बनी कि प्राचार्य रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर और कोरंटपुर के श्री महावीरमन्दिर की एक लग्न में प्रतिष्ठा करवाई थी। इसमें मूलगे रूप से तो उपकेशपुर में और वैक्रय रूप से कोरंटपुर में प्रतिष्ठा करवाई थी। कोरंटपुर में प्रतिष्ठा करवा कर वे तत्काल ही उपकेशपुर पधार गये थे। बाद में जब कोरंट संघ को इस बात की खबर हुई कि आचार्य रत्नप्रभसूरि मूलगे रूप से तो उपदेशपुर में रहे और अपने यहां तो वैक्रय (मायावी ) रूप से आये थे, भला इस मायावी रूप से कराई प्रतिष्ठा का क्या प्रभाव पड़ेगा ? अतः उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि मुनि कनकप्रभ को अपने आचार्य बना कर पुनः प्रतिष्ठा करवानी चाहिये। परन्तु वास्तव में उनके इस निश्चय में कोई औचित्य न था और न उनके अन्तःकरण में रत्नप्रभसूरि के प्रति अश्रद्धा थी, केवल कलिकाल के प्रभाव से मतिभ्रम के कारण ऐसा निश्चय कर डाला; परन्तु जब मुनि कनकप्रभ से संघ ने प्रार्थना की तो पहिले तो उन्होंने इन्कार किया । इतना ही क्यों पर उन्होंने संघ को ठीक समझाया कि रत्नप्रभसूरि जैसे प्रतिभाशाली आचार्य होते हुए दूसरा श्राचार्य बनना एवं बनाना अनुचित है । इससे समुशय में भेद पड़ जायगा और भविष्य में संगठन शक्ति का ह्रास होने से बड़ा भारी नुकसान होगा। दूसरे यह सो आप जानते हो कि एक शरीर से इतने फासले पर एक लग्न में दोनों प्रतिष्ठा कैसे हो सकती हैं ? आपके यहां वैक्रय से नहीं आते तो उपकेशपुर में वैक्रय से रहते बात तो एक ही थी । अतः मेरी सलाह है कि इस विषय में आप शान्ति रखें इत्यादि । पर संघ के दिल को संतोष नहीं हुआ। उन्होंने तो श्रीमाल पद्मावती वगैरह आमन्त्रण भेज संघ को बुला लिया और आग्रह पूर्वक मुनि श्री कनकप्रभ को आचार्य पद से विभूषित कर ही दिया। मुनि कनकप्रभ ने भी उन संघ के विग्रह चित्त को शान्त करने के लिए द्रव्य क्षेत्र काल भाव देख कर संघ का कहना स्वीकार कर लिया। ___ जब इधर आचार्य रत्नप्रभसूरि ने कोरंटपुर का हाल सुना तो आपने विचार किया कि कुदरत ने जो किया है वह अच्छा ही किया है कारण इस समय धर्म प्रचार के लिए ऐसे समर्थ पद की आवश्यकता भी है। क्योंकि आचार्यपद एक ऐसा महत्त्व का एवं जुम्मेदारी का पद है कि जिसको धारण करने पर उसका कर्तव्य को अदा करना पड़ता है और कोरंटपुर संघ ने कनकप्रभ को आचार्य बना कर मेरे कन्धे का कुछ भार भी हलका कर दिया है अतः कोरन्टसंघ का मुझे उपकार ही मानना चाहिये । ___ आचार्य रत्नप्रभसूरि इतने दीर्घदर्शी और शासन हितैषी थे कि नूतनाचार्य और कोरंटपुर श्रीसंघ का उत्साह बढ़ाने के लिए अपने कुछ साधुओं को साथ लेकर कोरंटपुर की ओर विहार कर दिया। कहा भी है कि 'संदेसे खेती नहीं पकती है और काम सुधारो तो डीले पधारों' अहा ! हा !! पूर्व जमाने के प्राचार्यों की कैसी वात्सल्यता ? कैसी शासन चलाने की पद्धति और कितनी निरभिमानता कि स्वयं सूरिजी ने भविष्य को लक्ष्य में रख कर कोरंटपुर की ओर विहार करदिया। १ Jain Education International For Private & Personal Use Only wwwsammelorary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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