SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ___ आचार्य रत्नप्रभसूरि क्रमशः कोरंटपुर के नजदीक पधार रहे थे। यह शुभ समाचार कोरंटपुरमें पहुँचे तो बड़े ही हर्ष के साथ आचार्य कनक प्रभसूरी ने अपने शिष्य-मंडल के साथ सूरीजी के स्वागत के लिए प्रस्थान कर दिया । भला इस हालत में कोरंटसंघ कब पीछे रहने वाला था । एक कोरंट संघ ही क्यों, पर उस प्रान्त में खासी चहल पहल मच गई थी और उन्होंने बड़े ही समारोह से सूरिजी का स्वागत किया। __ आचार्य रत्नप्रभसूरि एवं कनकप्रभसूरि जिस समय कोरंटपुर स्थित महावीर मन्दिर का दर्शन कर व्याख्यान पीठ पर विराजमान हुए तो सूर्य और चन्द्र की भांति ही शोभने लगे। आचार्य रत्नप्रभसूरि ने मंगलाचरण के पश्चात फरमाया कि कोरंट श्रीसंघ ने हमारे गुरुभ्रात कनकप्रभ को प्राचार्य बना कर योग्य सत्कार किया है इसके लिए मैं आपकी प्रशंसा करता हूँ, क्योंकि जब दुकानें बढ़ती हैं तो उनके संचालक भी बढ़ने ही चाहिए । इस समय हमें धर्म का क्षेत्र विशाल बनाने की परमावश्यकता है । यदि कनकप्रभसूरि इस पद की जुम्मेवारी समझ कर अपना कर्तव्य अदा करेगा तो श्री संघ का किया हुआ प्रस्तुत कार्य अधिक लाभकारी होगा और मैं श्रीसंघ के किए हुए शुभ कार्य में शामिल होने की स्वीकृति भी देता हूँ। जिस कारण को लेकर आपने कनकप्रभ को आचार्य बनाया है थोड़ा उसका भी खुलासा कर देना अनुचित न होगा । बात यह थी कि आप लोग तो गुरु महाराज के बनाये हुए श्रद्धासम्पन्न श्रावक थे । आपकी श्रद्धा मजबूत है, पर उपकेशपुर के श्रावक अभी नये हैं, इसलिये मेरी उपस्थिति वहाँ खास जरूरी थी । अतः मैं मूलगे रूप वहाँ रह कर वैक्रय रूप से आपके यहाँ आया था। बस, इसके अलावा दूसरा कोई भी कारण नहीं था । यदि इसके अलावा आप लोगों के दिल में कोई दूसरा भाव हो तो शीघ्र ही निकाल दें। सूरिजी के इन वचनों को सुन कर कोरंटसंघ बड़ा ही संतुष्ट हुआ और नम्रतापूर्वक कहने लगे कि हे प्रभो! आप जैसे शासन स्तम्भ एवं धुरंधरों के द्वितीय भाव हो हो कैसे सके ? पर हम अल्प बुद्धि वालों ने अज्ञान के वश एवं कलिकाल के प्रभाव से व्यर्थ ही दुर्विचार कर यह कार्य कर डाला है;अतः आपक्षमा प्रदान करावें ।इधर कनकप्रभसूरि ने अर्ज की कि हे विभो ! इस संघ की आतुरता से यहाँ का वातावरण देख मैंने संघ का कहना स्वीकार कर लिया था। फिर भी मैं आपका श्राज्ञापालक एक शिष्य हूँ और आप तो मेरे पूज्य ही हैं मैं यह आचार्य पद आपके चरण कमलों में अर्पण कर देता हूँ। क्योंकि आप जैसे पूज्य पुरुषों की मौजूदगी में यह पद मुझे शोभा नहीं देता है, इत्यादि । सूरिजी ने संघ एवं कनकप्रभसूरि को सम्बोधन कर कहा कि श्रीसंघ ने श्रापकी योग्यता पर जो कार्य किया है वह अच्छा ही किया है और आज मैं भी अपनी ओर से आपको आचार्य पद दे देता हूँ। अतः अव आप इन चतुर्विध श्रीसंघ का सुन्दर रीति से संचालन कर जैन धर्म की वृद्धि करो। अहाहा ! जैनाचार्यों का धर्म प्रेम स्नेह और वात्सल्यता कि जिसको देख संघ चकित हो गया और मन ही मन पश्चाताप करने लगा कि हम लोगों की भ्रांति मिथ्या ही थी । खैर समय बहुत हो जाने से सभा शान्ति के साथ विसर्जित हुई। बाद दोनों आचार्यों ने प्रेम के साथ धर्म प्रचार के हित कई प्रकार की योजना तैयार की और उसको शीघ्र ही काम में लेने का निश्चय किया। इधर कोरंटश्रीसंघ ने सृरिजी से चतुर्मास की विनती की और Jain Educa r national For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy