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________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [वि० पू० ४०० वर्ष ------------- आचार्य श्री ने उसे स्वीकार भी कर लिया । उधर उपकेशपुर के संघ अग्रेसर कोरंटपुर आये थे। और चतुर्मास के लिये साग्रह प्रार्थना की । इस पर आचार्य रत्नप्रभसूरि ने कनकप्रभसूरि को उपके शपुर चतुर्मास करने का आदेश दे दिया । वस दोनों नगरों के संघ में आज आनन्द एवं हर्ष का पार नहीं था । और दोनों सूरीश्वर ने कई अर्सा तक कोरंटपुर में विराज कर जनता को धर्मोपदेश दिया। तत्पश्चात इधर तो कनकप्रभसूरि ने उपकेशपुर की ओर विहार कर दिया और उधर रत्नप्रभसूरि श्रीमाल पद्मावती चन्दावती आदि अर्बुदाचल के आस-पास के प्रदेश में विहार कर धर्म की प्रभा बढ़ाई वाद कोरंटपुर में चार्तुमास कर दिया। उस जमाने में अजैनों को जैन बनाने की तो एक मशीन ही चल पड़ी थी। जहां पधारते वहाँ थोड़ी बहुत संख्या में नये जैन बना ही डालते और उनके आत्म-कल्याण साधन के निमित्त जैनमन्दिरों की प्रतिष्ठा भी करवाया करते थे कि जिससे आत्म-कल्याण के साथ धर्म पर श्रद्धा भक्ति भी बढ़ती रहे दूसरा धर्म पर अपणायत और गौरव भी रहता है। दोनों सूरियों का दोनों नगरों में चर्तुर्मास हो जाने से श्रीसंघ में धार्मिकप्रेम स्नेह भक्ति एवं श्रद्धा और धर्म का उत्साह खूब ही बढ़ा । जो दोनों संघ में कलिकाल ने अपनी प्रभा का बीज बोया था उसे सत्ययुग में जन्मे हुये सूरिजी ने मूल से नष्ट कर डाला अर्थात् दोनों सूरिजी एवं दोनों नगरों के श्रीसंघ में शान्ति और धर्म-स्नेह बढ़ता ही गया । चर्तुमास समाप्त हो जाने के बाद दोनों सूरियों का विहार हुआ। वे भूभ्रमण कर धर्म प्रचार करने में लग गये। ___ इस प्रकार उपकेशपुर के आस पास विचरने वाले मुनिगण आचार्य रत्नप्रभसूरि की आज्ञा में रहे उन समूह का आगे चल कर उपकेशगच्छ नाम संस्करण हुआ तथा कोरंटपुर के आस पास में बिहार करने वाले श्रमणगण जो आचार्य कनकप्रभसूरि की आज्ञा में रहे आगे चल कर उनके गच्छ का नाम कोरंटगच्छ कहलाया इस तरह से भगवान पार्श्वनाथ की परम्परावृति श्रमणसंघ की दो शाखाए हो गई और वेाद्यवधि विद्यमान है । -राजा उत्पलदेव के बनाये पार्श्वनाथ के मंदिर की प्रतिष्ठा___ राजा उत्पलदेव जो एक पहाड़ी पर मन्दिर बना रहाथा एवं खूब रफ्तार से तैयार होरहा था। उस मंदिर के लिये चतुर शिल्पकारों से मूर्तियाँ भी तैयार करवाई । जब क्रमशः सब काम तैयार होगया तो राजा मंत्री और नागरिक लोगों की प्रतिष्ठा के लिये इतनी उत्कंठा हो आई कि उन्होंने दोनों सूरीश्वरों को आमन्त्रण के लिये अपने निज मनुष्यों को आमन्त्रण पत्रिकायें देकर भेजे और विशेषतया कहलाया कि पूज्यवर ! श्राप की आज्ञानुसार सब कार्य निर्विघ्नता से वैयार हो गया है। अब आप शीघ्र पधार कर इस मदर की प्रतिष्ठा करवा कर हम लोगों को कृतार्थ बनावें इत्यादि ) दोनों' सूरिजी गजा का आमन्त्रण पाकर विहार कर उपकेशपुर पधारे । अतः जनता में खूब ही १–एक पट्टावली में यह प्रतिष्ठा कनकप्रभसूरि के करकमलों से होना लिखा है, पर पट्टावली नंबर ४ में आचार्य रत्नप्रभसूरि और कनकप्रभसूरि एवं दोनों आचार्यों का नाम लिखा हुआ है, संभव है कि दोनों सू रिवर पधारे हों । कारण, राजा उत्पलदेव को जैनधर्म का बोध कराने वाले आचार्यरत्नप्रभसूरि ही थे तो ऐसे समय पर वे नहीं पधारें यह कम जचता है । अतः यह अधिक विश्वसनीय है कि प्रतिष्ठा के समय दोनों सूरिवर पधारे हों । Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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