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________________ [ ३१ । (९) महावीर धामी का उपदेश किया हुआ धर्मतत्व सर्वमान्य होगया। (१०) पूर्वकाल में अनेक ब्राह्मण जैनपण्डित जैनधर्म के धुरन्धर विद्वान् होगए है। (११) ब्राह्मण धर्म जैनधर्म से मिलता हुआ है इस कारण टीक रहा है। बौद्धधर्म का जैनधर्मसे विशेष अमिल होने के कारण हिन्दुस्थान से नाम शेष होगया है। (१२) जैनधर्म तथा ब्राह्मणधर्म का पीछेसे कितना निकट सम्बन्ध हुआ है सो ज्योतिषशास्त्री भास्कराचार्य के प्रन्थ से विशेष उपलब्ध होता है । उक्त आचार्य्यने ज्ञान दर्शन और चारित्र ( जैनशास्त्र विहित रत्नत्रय धर्म) को धर्म तत्त्व बतलाए हैं । ३४ श्रीयुत वरदाकान्त मुख्योपाध्याय एम० ए० के बंगला लेख के श्रीयुत नाथूरामजी प्रेमी द्वारा अनुवादित हिन्दी लेख से उद्धृत कुछ वाक्य (१) हमारे देश में जैनधर्म की आदि उत्पत्ति, शिक्षा नीति और उद्देश्य सम्बन्धी कितने ही भ्रान्तमत प्रचलित हैं इसलिये हम लोग जैनियों से घृणा करते रहते हैं............ । इसलिए मैं इस लेख में भ्रम समूह दूर करने की चेष्टा करूंगा। (२) जैन निगमिषमोजी ( मांसत्यागी ) क्षत्रियों का धर्म है। "अहिंसा परमोधर्मः" इसकी सार शिक्षा और जड़ है । इस मत में "जीव हिंसा नहीं करना, किसी जीव को कष्ट नहीं देना" यही श्रेष्ठ धर्म है। (३) शंकराचार्य महाराज स्वयं स्वीकार करते हैं कि जैनधर्म अति प्राचीनकाल से. है। वे वादगयण व्यास के वेदान्त सूत्र के भाष्य में कहते हैं कि दूसरे अध्याय के द्वितीय पाद के सूत्र ३३-३६ जैनधर्म ही के सम्बन्ध में हैं । शारीरिक मीमांसा के भाष्यकार रामानुजजी का भी यही मत है। (४) योगवासिष्ट रामायण वैराग्य प्रकरण, अध्याय १५ श्लोक ८ में श्री रामचन्द्रजी जिनेन्द्र के सहश शान्त प्रकृति होने की इच्छा प्रकाश करते हैं, यथाः नाहं रामो नमे वांछा भावेषु च न मे मनः । शान्तिमासितु मेच्छामि स्वात्मनीव जिनो यथा ॥ (५) रामायण, बालकांड, सर्ग १४, श्लोक २२ में राजा दशरथ ने श्रमणगणों (अर्थात् जैन मुनियों) का अतिथिसत्कार किया, ऐसा लिखा है: वापसामुजते चापि श्रमणा भुखते तया । भूषण टीका में श्रमण शब्द का अर्थ दिगम्बर (अर्थात् सर्व वखादि रहित जैनमुनि ) किया है। यथाः श्रमणा दिगम्बराः श्रमणा बातवसना इति निघण्टुः । (६) शाकटायन के उणादि सूत्र में 'जिन' शब्द व्यवहृत हुआ है: इणजस जिनीडुष्यविभ्योनक सूत्र २५९ पाद ३, सिद्धान्तकौमुदी के कर्ता ने इस सूत्र की व्याख्या निनोऽहन् ,' कहा है। भेदनीकोष में भी 'जिन' शब्द का अर्थ 'अहत्' 'जैनधर्म के आदि प्रचारक है। वृत्तिकारगण भी 'जिन' के अर्थ में 'अहत्' कहते हैं यथा उणादि सूत्र सिद्धान्तकौमुदी । शाकटायन ने किस समय उणादि सूत्र की रचना की थी १ वास्क की निरुक्त में शाकटायन के का उल्लेख है। और पाणिनि के बहुत समय पहिले निरुक्त बना है इसे सभी स्वीकार करते हैं। और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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