________________
आचार्य कक्कर का जीवन ]
[ औसवाल संवत् ११२
द्वितीय विभाग - का कर्तव्य विदेशियों की देख-रेख करना था । मौर्य साम्राज्य का विदेशियों से बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध था । अनेक विदेशी लोग ब्यापार अथवा भ्रमण के लिय इस देश में आते थे । उनका इस विभाग की ओर से उचित निरीक्षण किया जाता था और उनकी सामाजिक स्थिति के अनुसार ठहरने के लिये उन्हें स्थान तथा नौकर चाकर दिये जाते थे । आवश्यकता पड़ने पर वैद्य लोग उनकी चिकित्सा करने के लिये नियुक्त रहते थे । मृत विदेशियों का अन्तिम संस्कार उचित रूप से किया जाता था। मरने के बाद उनकी सम्पत्ति तथा रियासत आदि का प्रबन्ध इसी विभाग की ओर से होता था और उसकी आय उनके उत्तराधिकारियों के पास भेज दी जाती थी । यह विभाग इस बात का बड़ा अच्छा प्रमाण है कि बिक्रम पूर्व तीसरी और चौथी शताब्दि में मौर्य साम्राज्य का विदेशी राष्ट्रों से लगातार सम्बन्ध था और बहुत से विदेशी व्यापार आदि के सम्बन्ध से भारतवर्ष में आते थे ।
तृतीय विभाग - का कर्तव्य साम्राज्य के अन्दर जन्म और मृत्यु की संख्या का हिसाब ठीक ठीक नियमानुसार रखना था। जन्म और मृत्यु की संख्या का हिसाब इसलिये रक्खा जाता था कि जिसमें राज्य को इस बात का ठीक ठीक पता रहे कि साम्राज्य की आबादी कितनी बढ़ी या कितनी घटी । जन्म और मृत्यु का लेखा रखने से प्रजा से कर वसूल करने में भी सहूलियत रहती थी । यह एक प्रकार का पोल टैक्स ( Poll-Tax ) था जो हर एक मनुष्य पर लगाया जाता था । विदेशियों को यह देखकर आश्चर्य होता है कि उस प्राचीन समय में भी एक भारतीय शासक ने अपने साम्राज्य की जनसंख्या जानने का कैसा अच्छा प्रबन्ध कर रक्खा था । इसके लिये एक अलग विभाग ही खुला हुआ था ।
चतुर्थ विभाग - के. आधीन बाणिज्य-व्यवसाय का शासन था । बिक्री की चीजों की दर नियत करना तथा सौदागरों से बटखरों और नापजोखों का यथोचित उपयोग कराना इस विभाग का काम था । इस विभाग के अधिकारी बड़ी सावधानी से इस बात का निरीक्षण करते थे कि बनिये तथा व्यापारी राजमुद्राकित वटखरों और मापों का प्रयोग करते हैं या नहीं । प्रत्येक व्यापारी को व्यापार करने के लिये राज्य से लाइसन्स या परवाना लेना पड़ता था । और इसके लिये उसे एक प्रकार का कर भी देना पड़ता था । एक से अधिक प्रकार का व्यापार करने के लिये व्यापारी को दूना कर देना पड़ता था ।
पंचम विभाग -- कारखानों और उनमें बनी हुई चीजों की चीज को अलग २ रखने की आज्ञा राज्य की ओर से दी गई थी । बेचना नियम के विरुद्ध और दण्डनीय समझा जाता था ।
देखभाल करता था । पुरानी और नयी राज्याज्ञा के बिना पुरानी चीजों का
पष्ट विभाग- बिकी हुई वस्तुओं के मूल्य पर दशमांश कर वसूल किया जाता था । जो मनुष्य कर न देकर इस नियम को भंग करता था उसे प्राणदण्ड दिया जाता था ।
अपने अपने कर्तव्यों के अतिरिक्त सभासदों को एक साथ मिल कर नगर- शासन के सम्बन्ध में सभी आवश्यक काम करने पड़ते थे। हाट, बाट, घाट और मन्दिर आदि सब लोकोपकारी कार्यों और स्थानों का प्रबन्ध इन्हीं लोगों के हाथ में था । मालूम पड़ता है कि तक्षशिला, उज्जयनि आदि सान्नाज्य के सभी बड़े २ नगरों का शासन भी इसी विधि से होता था ।
Jain Education Intational
For Private & Personal Use Only
२६५
www.jainelibrary.org