SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 432
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन [ ओसवाल संवत् १४ समर्थ है । हम सब लोगआप श्रीमानों के उपदेशानुसार जैन धर्म स्वीकार करने को तैयार हैं अर्थात् आप हमारे धर्म-गुरु हैं, हम और हमारी संतान आप के शिष्य उपासक हैं। इस अभिरुचि का कारण जैसे प्राचार्यश्री का सदुपदेश था वैसे ही उन पाखण्डियों का दुराचार भी था, कारण दुनिया पहिले से ही उन दुःशीलों से घृणा कर शान्तिमय धर्म की प्रतीक्षा कर रही थी वह शान्ति आज सूरीश्वरजी के चरणों में मिल रही है। इस सुअवसर पर उपकेशपुर की अधिष्ठात्री सच्चायिकादेवी अपनी सहचारिणी देवियों को साथ ले सूरीश्वरजी के दर्शनार्थ आई थी उसने वन्दन नमस्कार के पश्चात्, वहाँ की भद्रिक जनता सूरिजी के उपदेश की ओर झुकी हुई है, यह देख देवी को भड़ा भारी आनन्द हुआ । कारण, सूरिजी को इस प्रान्त में विहार करवाने की प्रेरणा सच्चायिका ने ही को थी। सच्चायिका देवी ने सूरिजी से कहा "हे प्रभो ! यह मातूलादेवी शिवनगर की अधिष्ठात्री है और प्रति वर्ष में हजारों लाखों जीवों का बलिदान ले रही है । आप इसको उपदेश दें"। यह कहते ही मातूलादेवी ने हाथ जोड़ कर अर्ज कर दी कि हे भगवान! आप उपदेश की तकलीफ न उठावें आपका प्रभाव मेरे अन्तःकरण पर पड़ चुका है। मैं आपश्री के सन्मुख प्रतिज्ञा करती हूँ कि आज से मेरे नाम पर किसी प्रकार की जीव हिंसा न होगी, इस पर सूरिजी ने संतुष्ट हो देवी को वासक्षेप देकर जैनधर्मोपासिका बनाई । इसका प्रभाव राजअन्तेवर और महिला समाज पर भी बहुत अच्छा पड़ा । उधर राजा प्रजा बड़े ही आतुर हो रहे थे; सूरिजी ने उनको पूर्वसेवित मिथ्यात्व की आलोचना करवा के ऋद्धि-सिद्धि संयुक्त महामंत्रपूर्वक वासक्षेप के विधि विधान से सबको जैन धर्म की शिक्षा दी और सब को जैनी बनाया । बाद संक्षेप से नित्य कर्म में आने वाले नियम बतलाये । खान पान आचार की शुद्धि करवा दी; मांस, मदिरा, शिकार, वेश्यागमन, चोरी, जुआ और परस्त्री-गमनादि दुर्व्यसन सर्वथा त्याग करवा दिये और देवगुरु धर्म एवं शास्त्र का थोड़े से में स्वरूप समझा दिया इत्यादि । देवी सच्चायिका ने नूतन जैन जनता को उत्साहवर्द्धक धन्यवाद दिया। तत्पश्चात सब लोग सूरिजी महाराज को वंदन नमस्कार कर जैनधर्म की जयध्वनि के साथ विसर्जन हुये। आचार्यश्री और सच्चायिकादेवी आपस में वार्तालाप कर रहे थे जिसके अन्दर देवी ने कहा भगवान ! आपने अथाह परिश्रम उठा कर जैन धर्म का बड़ा भारी उद्योत किया । सूरिजी ने कहा "देवी ! इस उत्तम कार्य में निमित्त कारण तो खास आप का ही है" देवी ने कहा “प्रभो ! आप और आपकी संतान इसी माफिक घूमते रहेंगे तो अपने पूर्वजों की माफिक आपभी प्रत्येक प्रान्तमें जैनधर्मका खूब प्रचार कर सकोगे।" आपश्री ने फरमाया कि बहुत खुशी की बात है हमारा तो जीवन ही इस पवित्र कार्य के लिये है इत्यादि, बाद देवी ने सूरीश्वरजी को वन्दन कर निज स्थान की ओर प्रस्थान किया । ___ इधर शिवनगर में एक तरफ जैनधर्म की तारीफ- प्रशंसा हो रही थी तब दूसरी ओर पाखण्डियों ने अपना वाड़ा-बन्धी के लिये भरसक परिश्रम करना शुरू किया। जो शूद्र लोग थे कि जिनको वह लोग धर्म श्रवण करने का भी अधिकार नहीं देते थे, इतना ही नहीं पर वे कुछ गिनती में भी नहीं थे, पर आज उनको भी मांस मदिरा और व्यभिचारादि का लालच बतला के पाखण्डी लोग अपने उपासक बना रखनेकी ठीक कोशिश कर रहे हैं। पात भी ठीक है कि दुराचारियों का ज़ोर जुल्म ऐसे अज्ञानी लोगों पर ही चल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy