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वि० पू० ३८६ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
समर्थ है । ज्ञान, ध्यान, शील, सदाचार, तपश्चर्या और अहिंसा एवं धर्म परीक्षा के पूर्वोक्त चारों लक्षण इस पवित्र धर्म में मौजूद हैं । जैनधर्म के चौबीस अवतार (तीर्थकर) पवित्र शुद्ध क्षत्रिय वंश में उत्पन्न हुये थे, उन्होंने केवल ज्ञान प्राप्त कर जनता को धर्मशिक्षा देकर उनका जीवन धर्ममय बना दिया था। उस धर्म को जैन धर्म कहते हैं कि जिनेन्द्र का कहा हुआ धर्म है, परन्तु कालान्तर में जिस जिस प्रदेश में जैन उपदेशक नहीं पहुँच सके उस उस प्रान्त में स्वार्थप्रिय पाखण्डियों ने बिचारे भद्रिक जीवों के नेत्रों पर अज्ञान के पाटे बाँध सदाचार से पतित बना कर दुराचार की गहरी खाई में गिरा दिये और इसी दुराचार ने दुनिया में त्राहि त्राहि मचा दी, यहाँ तक कि वह अपनी अखिरी हद तक पहुँच गया है। अब इसका भी उद्धार होना ही था आज सदुपदेशक महात्माओं के ज्ञान सूर्य का प्रकाश भारत के कोने २ में रोशन हो रहा है जिससे अधर्म के पैर उखड़ गये, पाखण्डियों की पोप लीला खुल गई, दुराचारियों के अखाड़े नष्ट हो गये यज्ञ जैसे निष्ठुर कर्म विध्वंस हो गये हैं व्यभिचारलीला से जनता घृणित होगई, वर्ण और जाति की जंजीरें टूट पड़ी हैं, उच्च नीच के भेदभाव को भूल जनता एक सूत्र में संखलित हो रही है। विश्व में अहिंसाधर्म की खूब गर्जना हो रही है । श्रात्मकल्याण और परम शांतिमय धम स्वीकार करने में न तो परम्परा बाधा डाल सकती है
और न उन पाखण्डियों की तनिक भी दाक्षीण्यता रही है अर्थात् वीरों के धर्म को आज वीर पुरुष निडरतापूर्वक अंगीकार कर रहे हैं। अतएव श्राप लोगों का परमकर्त्तव्य है चि सत्यासत्य का निर्णय कर सब से पहिले आत्मकल्याण के लिये पवित्र धर्म को स्वीकार कर अहिंसा भगवती के उपासक बन उसका ही श्राराधन और प्रचार करें, यह मेरी हार्दिक भावना है।
आचार्यश्री के अमृतमय देशनारूपी भानु के प्रखर प्रकाश में पाखण्डी रूप तगतगते तारे एकदम लुप्त हो गये । जिन पाखरियों के दिल में मिथ्या घमंड-अमिमान-मद था वह मानों भास्कर के प्रचंड प्रताप से हिम गल जाता है वैसे गल गया । सूरीश्वरजी महाराज के तप तेज और सद्ज्ञान के सामने पाखण्डियों से एक शब्द भी बच्चारण नहीं हुआ। कारण, पहिले दिन के मनोहर व्याख्यान से ही उन भाद्रिक जनता के हृदय में सद्ज्ञान रूपी सूर्य प्रकाशित हो गया था । अत्याचारियों के दुराचार पर घृणा श्रा चुकी थी। सुरिजी महाराज की तरफ दुनिया का दिल आकर्षित हो आया था, क्योंकि “पुरुष बिश्वासस्य वचन विश्वा" आचार्य श्री का कहन, रहन, सहन, श्राचार, विचार, तप, संयम, निस्पृहता और परोपकारपण्यणता पर राजा प्रजा मुग्ध बन चुके थे फिर आज के व्याख्यान से तो लोगों की श्रद्धा और रुचि इतनी बढ़ गई थी कि कन्धे पर के डोरे और गले की कंठियां तोड़ डालने को सब लोग बड़े ही श्रातुर थे।
___ महाराज रुद्राट ने खड़े हो कर नम्रतापूर्वक अर्ज करी कि हे प्रभो ! आप श्रीमानों का कहना अक्षरशः सत्य हैं। हमारी आत्मा इस बात को मंजूर कर रही है कि जैन धर्म क्षत्रियों का धर्म है । जैन धर्म सब धर्मों से प्राचीन और पवित्र धर्म है सदाचार और नीति पथ बतलाने में यह धर्म अद्वितीय है और आत्मकल्याण करने में तो इसकी बराबरी करने वाला संसार भर में कोई भी धर्म नहीं है, फिर भी अधिक हर्ष इस बात
का है कि आप जैसे महान तपस्वी गुरुवर्य अनेक प्रकार के संकट सहन करते हुये हमारे सद्भाग्योदय से यहां पधार कर हम लोगों को सद्बोध दिया, जिसके जरिये हम लोगों को आज इस प्रकार सत्यासत्य, हिताहित, कृत्याकृत्य, भक्ष्याभक्ष्य, धर्मा-धर्म का ज्ञान हुआ । इतना ही नहीं पर हम बखूबी समझ गये हैं कि आप जैसे परम-योगीश्वरों के चरण कमलों की रज भी हमारे जैसे अधर्मियों का कल्याण करने में
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