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आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् १४ करावें । इस पर सूरीश्वरजी महाराज ने फरमाया कि मंत्रीश्वर आपकी और दरबार की हमारे प्रति भक्ति है वह बहुत अच्छी बात है और ऐसा होना ही चाहिये । इतना ही नहों पर जैसे हमारे प्रति आपकी वात्सल्यता है वैसे ही सर्व जीवों प्रति रखना आपका परमकर्तव्य हैं। श्राप के श्राग्रह को स्वीकार करने में हमको किसी प्रकार का इन्कार नहीं है पर हमारे कितनेक मुनियों को एक मास का कितनेक को दो मास का एवं यथा साध्य तप प्रत्याख्यान है। श्राप जानते हो कि पूर्व संचित कर्म सिवाय तपस्या के नष्ट नही हो सकते हैं । तपश्चर्या से इन्द्रियों का दमन होता है मन कब्जे में रहता है,ब्रह्मचर्यव्रत सुखपूर्वक पल सकता है । ध्यानमौन
आसन समाधि श्रानन्द से बन सकते हैं। इसीलिए ही पूर्व महर्षियों ने हजारों लाखों वर्षों तक घोर तपश्चर्या की और आज भी यथा साध्य करते हैं । हे मंत्रीश्वर! हम जैनसाधु न तो मनुहार करवाते हैं और न अाग्रह की राह ही देखते हैं। जिस रोज हमको भिक्षा करना हो उसी रोज हम स्वयं नगर में जाकर सदाचारी घरों से जहाँ कि मांस-मदिरा का प्रचार न हो, ऋतु धर्म पाला जाता हो वैसे घरों से योग्य भिक्षा लाकर इस शरीर का निर्वाह करने को भिक्षा कर लेते हैं इस वास्ते आप किसी प्रकार का अन्य विचार न करें । हम आपकी भक्ति से बहुत ही प्रसन्नचित्त हैं इत्यादि ।
___ मुनिवरों की प्रभावशाली तपश्चर्या का प्रभाव राजकुमार और मंत्रीश्वर की अन्तरात्मा पर इस कदर हुआ कि वे आश्चर्य में मुग्ध बन गये और उन महात्माओं के आदर्श जीवन के प्रति कोटिशः धन्यवाद देते हुये वन्दन नमस्कार कर वापिस लौट गये और महाराज रुद्राट को सब हाल निवेदन किया । जिसको सुन कर दरबार ने साश्च- महात्माओं की कठिन तपश्चर्या का अनुमोदन किया इतना ही नहीं पर राजा की मनोभावनारूपी विजली आचार्यश्री के चरण कमलों की ओर इतनी झुक गई कि उन्होंने शेष दिन और रात्रि एक योगी की भांति बिताई और सुबह होते ही अपने कुँवर व मंत्रीश्वर और राजअन्तेवर वगैरह सब परिवार को लेकर सूरिजी के चरणों में बड़े ही समारोह के साथ हाजिर हुये । इधर नागरिक लोगों के झुन्ड के झुन्ड तथा उधर मठपति और ब्राह्मण लोग भी बड़े ही सजधज के साथ उपस्थित हुये । वन्दन नमस्कार के पश्चात सूरीश्वरजी ने अपना व्याख्यान प्रारम्भ किया । कारण,पहिले दिन के व्याख्यान की सफलता से आपश्री का उत्साह खूब बढ़ा, हुआ था अतः उन्होंने पुनः जनता को धर्म का स्वरूप विस्तार से समझाते हुये कहा कि जैसे सुवर्ण की परीक्षा की जाती है वैसे धर्म की भी परीक्षा हो सकती है देखिये नीतिकार क्या कहते से ?:
यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते, निर्घषण छेदन ताप ताडनैः ।
तथैव धर्मोविदुषां परीक्ष्यते, श्रुतेन शीलेन तपोदयागुणै ॥१॥ भावार्थ- कष, छेद-सुलाक, और ताप ताड़न, एवं चार प्रकार से स्वर्ण की परीक्षा की जाती है वैसे ही (१) श्रुत (ज्ञान-ध्यान) (२) शील ब्रह्मचर्य व खान पान रहन सहनादि सदाचार (३) तपश्चर्याइच्छा का निरोध (४) दया सर्व प्राणियों के प्रति वात्सल्यभाव अर्थात् जिस धर्म में पूर्वोक्त चारों प्रकार के गुण होते हैं वही धर्म जगत का कल्याण करने में समर्थ समझना और उसी को ही स्वीकार कर एवं पालन कर श्रात्म-कल्याण करना चाहिये।
सज्जनो ! जैनधर्म शुद्ध-सनातन प्राचीन सर्वोत्तम पवित्र धर्म है और जनता का कल्याण करने में सदैव
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