SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 429
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वि० पू० ३८६ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास से रसोई पकाते हैं और न उनके लिए बनाई हुई रसोई उनके काम में आती है क्योंकि रसोई बनाने में जल अग्नि वनस्पति आदि की जरूरत पड़ती है और इन सब में जीव सत्ता है अर्थात आत्मा है। अतः मुनियों के निमित्त विचारे निर्दोष जीवों को हिंसा करके बनाये हुए भोजन का उपयोग साधु कैसे कर सकते हैं ? क्योंकि हम तो चराचर समस्त जीवों के रक्षक हैं न कि भक्षक ! मंत्रीश्वर ने पूछा कि आप जल, अग्नि और फल-फूलादि वनस्पति को अपने काम में नहीं लेते हैं ? आचार्य श्री-नहीं, काम में लेना तो दूर रहा परन्तु स्पर्श तक भी नहीं करते हैं। मंत्रीश्वरः-आप भोजन करते हो ? पानी पीते हो ? श्राचार्य श्री:-हाँ जिस रोज उपवासादि तपश्चर्या नहीं करते हैं उस रोज भोजनपान करते हैं। मंत्रीश्वर:-फिर आपके लिए भोजन-पानी कहाँ से आता ? कारण श्राप स्वयं बनाते नहीं और आपके लिये बनाई रसोई आपके काम में नहीं पाती है। सूरिजी-जब हमको भिक्षा की जरूरत होती है तव गृहस्थों की अपने लिये बनाई हुई रसोई में से थोड़ी २ भिक्षा ले लेते हैं जिसमें हमारा गुजर हो जाता और किसी जीव को तकलीफ नहीं होती है। ___ मंत्रीश्वरर-भोजन तो श्राप पूर्वोक्त रीति से ग्रहण कर लेते होंगे परन्तु पानी तो आप को वही पीना पड़ता होगा कि जिसमें आप जीव सत्ता बतलाते हैं ? श्राचार्य श्री- नहीं, हम कुश्रा, तलाव, नदी आदि का कच्चा जल नहीं पीते हैं मगर जो गृहस्थ लोग अपने निजके लिये गरम जल बनाया हो यदि उसमें बच जाता हो तो उस पानी से काम चला सकते हैं। मंत्रीश्वर-अगर आपकी प्रथानुसार भोजन और जल न मिले तो फिर आप क्या करते हैं ? आचार्य-ऐसे समय में भी हम खुशी मानते हुए तपवृद्धि करते हैं। इस वार्तालाप को सुन कर राजकुंवर और मंत्रीश्वर आश्चर्य मुग्ध बन गये और उनके हृदय से पान्तर नाद निकला कि अहो ! आश्चर्य ! अहो जैन मुनि ! अहो जैन धर्म ! अहो जैन मुनियों के मोक्ष वर्ति के कठिन नियम ! दुनिया में क्या कोई ऐसे कठिन नियम पालने वाले साधु होंगे ? एक चींटी और मकोड़ी तो क्या परन्तु मिट्टी, जल, और वनस्पति के फल-फूल को स्पर्श कर हिंसा के भागी नहीं बनते हैं। यह एक जैन मुनियों के श्रेष्ठतम करुण भावना का अपूर्व परिचय है । मंत्रीश्वर ने कहा राजकुंवर ! कहां तो अपने मठपति लोभान्ध और कहाँ यह निस्पृही जैन महात्मा? कहाँ तो अपने दुराचारियों का भोगविलास और व्यभिचार लीला ? और कहाँ इन परोपकारी म्हात्माओं की शान्ति और सदावृति ? इतना ही क्यों पर इन परमतपस्वी साधुजनों को तो अपने शरीर तक की भी परवाह नहीं है । राजकुंवर ! मैंने तो दृढ़ निश्चय कर लिया है कि ऐसे महात्माओं द्वारा ही जगत का उद्धार होगा इत्यादि । राजकुमार ने भी अपनी सन्मति प्रदर्शित करते हुए कहा मंत्रीश्वर ! आपका कहना सत्य है कि जो पुरुष अपना कल्याण करता है वही जगत का भला कर सकता है। अस्तु । पुनः मंत्रीश्वर ने अर्ज करी कि भगवान् ! जैसे श्रापका प्राचार व्यवहार हो वैसा करावें इसमें हम कुछ भी नहीं कह सकते पर हमारे नगर में पधार कर आप भूखे यासे न रहें । दरबारश्री ने कल के लिये भी बहुत पश्चाताप कर रहे हैं इस वास्ते हमारी भूल पर क्षमा प्रदान करें और आप नगर में पधार कर भिक्षा Jain Educat RR 8ational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy