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वि० पू० ३८६ वर्ष
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
सकता है। अगर आचार्य श्री चाहते तो उन नास्तिकों का दमन करवा सकते पर उन्होंने ऐसा करना उचित नहीं समझा । कारण, धर्म पालना या न पालना आत्म-भावना पर निर्भर है न कि ज़ोर जुल्म पर।
आचार्यश्री का प्रति दिन व्याख्यान होता रहा । देव गुरु धर्म का स्वरूप तथा मुनि धर्म गृहस्थधर्म और साधारण प्राचार व्यवहार से उन नूतन श्रावकों में ऐसे संस्कार डाल दिये कि दिन दिन उनकी जैन धर्म पर श्रद्धा रुचि बढ़ती गई । कालान्तर में आचार्यश्री ने वहां से विहार करने का विचार किया, इस पर महाराज रुद्राट ने अर्ज करी कि भगवान ! यहाँ के लोग अभी नये हैं, मिथ्यात्वी लोगों का चिरकाल से परिचय है न जाने आपके पधार जाने पर इन लोगों का फिर भी जोर बढ़ जावे, इस वास्ते मेरी अर्ज तो यह है कि आप चतुर्मास भी यहाँ ही करें। इस पर आचार्यश्री ने फरमाया कि राजन् ! मुनि तो हमेशा घूमते ही रहते हैं, जैनधर्म की नींव मजबूत बनाने को खास दो बातों की आवश्यकता है ( १ ) जैनमन्दिरों का निर्माण होना ( २ ) जैन विद्यालय स्थापन कर जैनतत्वज्ञान का प्रचार करना । ये दोनों कार्य
आप लोगों के अधिकार के हैं । राजा ने अर्ज करी कि हम इन दोनों कार्यों को शीव्रता से प्रारम्भ करवा देंगे, पर साथ में साधुओं के उपदेश की भी बड़ी आवश्यकता है । सूरिजी महाराज ने इस बात को स्वीकार कर कितनेक मुनियों को शिवनगर में रख, आपने आस पास में विहार किया । जहाँ जहाँ आप पधारे वहाँ वहां जैन धर्म का खूब प्रचार किया। जहाँ नये जैन बनाये वहाँ जैन मन्दिर और विद्यालय की नींव डलवा ही देते थे और कहीं कहीं पर तो आप अपने साधुओं को वहां ठहरने की आज्ञा भी दे देते थे ।
इधर महाराज रुद्राट ने बड़ा भारी आलीशान जैन मन्दिर बनाना शुरू कर दिया । मन्त्री की कार्य कुशलता एवं द्रव्य की छूट होने से कार्य शीघ्रातिशीघ्र बन रहा था। और कई विद्यालय खोल दिये कि जिनके अन्दर ज्ञान का प्रचार भी हो रहा था।
महाराज रुद्राट और श्रीसंघ के अत्याग्रह से आचार्यश्री यज्ञदेवसूरि का चर्तुमास शिवनगर में हुआ जिससे श्री-संघ में उत्साह की और भी वृद्धि हुई । और बड़े ही आनन्द से चतुर्मास समाप्त हुआ।
तत्पश्चात महाराज रुद्राट के बनाये हुये महावीरप्रभु के मंदिर की प्रतिष्ठा बड़े ही धाम-धूम से हुई। विद्यालय के जरिये जैन तत्वज्ञान का प्रसार हो रहा था साथ में आचार्य श्री का व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य पर होता था जिस प्रभावशाली उपदेश का यों तो सब लोगों पर अच्छा असर हुआ, पर विशेष प्रभाव महाराजा रुद्राट और राजकुमार कक्व पर हा कि जो अपने राजकाज और संसार सम्बन्धी सर्व कार्यों का परित्याग कर सूरिजी महाराज के चरणों की संवा करने को सलग्न हों गये, इतना ही क्यों पर राजा और राजकुँवर दीक्षा लेने को भी तैयार होगये । उनका अनुकरण करने को कई नागरिक लोग भी मुक्ति रमणी की वरमाला से ललचा गये । महोत्सव के साथ शुभ मुहूर्त के अन्दर महाराज रुद्राट ने अपने बड़े पुत्र
ततो नगर मागत्य, रुद्राटादीञ्च नागरान् । कृत्वा सूरिश्च तान् जैनान्, मन्दिरार्थ मुवाचह ।। ककाख्यो राजपुत्रस्तु, युतः स्त्रीभिश्च मानवैः । अनेकैर्जगृहे दीक्षां, सूरिभ्यो ज्ञान हेतवे ।। दीक्षां संगृह्य तेजस्वी, कक वेति नृपात्मजः । जननी जन्म भूमि च, उजहार जिनालयैः ।। कक मूरिंगुरूं सोऽपि, स्वपट्टेऽस्थापयत् प्रभुः । यद्गुणान्नेश्वरोगातुं, सोऽपि चित्र शिखण्डिजः॥
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