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आचार्य यक्षदेवसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् १४
शिवकुमार को राज्याभिषेक कर आप अपने लघु पुत्र कक्कव और करीबन १५० नर नारियों के साथ आचार्य श्री यक्षदेव सूरि के पास बड़े ही समारोह के साथ जैन दीक्षा धारण करली । सिन्ध प्रदेश में यह पहलापहला महोत्सव होने से जैन धर्म का बड़ा भारी उद्योत हुआ। जनता पर जैन धर्म का बड़ा भारी प्रभाव पड़ा। कारण, उस जमाने में सिंध प्रदेश का महाराजा रुद्राट एक नामी राजा था। उसने अपने पुत्र के साथ जैन दीक्षा लेने से सम्पूर्ण सिध प्रदेश में जैन धर्म की बड़ी भारी छाप पड़ गई थी।
शिवनगर के चर्तुमास से आचार्य श्री को बड़ा भारी लाभ हुआ था। बाद में भी पास-पास में अनेक मंदिरों की प्रतिष्ठा और अनेक विद्यालयों की स्थापना करवा के उन्हों ने जैन धर्म का खूब प्रचार किया।
___ आचार्य यक्षदेवसूरि ने अपने शिष्य समुदाय के साथ सिंध भूमि में खूब ही परिभ्रमण किया । फलस्वरूप थोड़े ही दिनों में आपने १००० साधु-साध्वियां को दीक्षा दी । सैंकड़ों जैन मदिरों और विद्यालयों की स्थापना करवाई ; अत एव चारों और जैन धर्म का झंडा फहरा दिया।
मुनिगण में कक नाम के मुनि जो महाराज रुद्राट के लघु पुत्र थे वे थोड़े ही दिनों में ज्ञानाभ्यास कर स्व-परमत के अनेक शास्त्रों के पारगामी हो गये, जैसे आप ज्ञान में उच्च कोटि के ज्ञानी थे, वैसे ही जैन धर्म का प्रचार करने में भी बड़े वीर थे। जिस में भी अपनी मातृभूमि का तो आपको बहुत गौरव था अतएव आपने पहले से ही प्रतिज्ञा करली थी कि मैं सब से पहले सिंध भूमि का ही उद्धार करूंगा अर्थात सिंध प्रान्त को जैन धर्म मय बना दूंगा और आपने किया भी ऐसा ही।
एक समय का जिक्र है कि आचार्यश्री ने परम पवित्र तीर्थराज श्री सिद्धाचलजी के महात्म्य का व्याख्यान किया, उसको श्रवण कर चतुर्विध श्रीसंघ ने अर्ज करी कि हे प्रभो ! श्राप हम को उस पवित्र तीर्थ की यात्रा करवा के गर्भावास को छुड़ाइये । इस बात को सूरिजी महाराज ने स्वीकार कर ली। तत्पश्चात् यह उद्घोषणा प्रायः सिन्धप्रान्त में करवा दी गई कि जिसको सिद्धाचलजी की यात्रा करनी हो वह तैयार हो शिवनगर पा जाय । सूरीश्वरजीने अपने १००० साधु साध्धियोंके साथ तथा और करीबन एक लक्षश्राद्धवर्ग शिवनगरमे एकत्र होगये । तत्पश्चात महाराज शिवको संघपति पद अर्पण कर शुभ मुहूर्त्तके अन्दर संघ छरी पालता हुआ यात्रा करने को रवाना हो गया,जिसके अन्दर सोना चाँदी के देरासर रत्नोंकी प्रतिमायें और हस्ती,घोड़े, रथ, पैदल,, बाजा, गाजा नकारा निशान वगैरह बड़ा ही आडम्बर था । उस भक्ति का प्रभाव अन्य लोगों पर भी काफी पड़ रहा था । ग्राम नगर और तीर्थों की यात्रा करता हुआ क्रमशः संघ श्रीश@जय पहुँचा और संघपति आदि लोगों ने मणी माणिक मुक्ताफल तथा श्रीफल और स्वर्ण से तीर्थ को बधाया और चतुर्विध संघ ने सूरीजी महाराज के साथ यात्रा कर अपने जीवन को सफल किया। बादमें गिरनार वगैरह तीर्थों की यात्रा कर आनन्द मंगल से श्रीसंघ वापिस सिन्धप्रदेश में पहुँचा गया। इस यात्रा से जैनधर्म पर लोगों की श्रद्धा रुचि और भी बढ़ गई इत्यादि।
आचार्य यक्षदेवसूरि ने अपने जीवन में जैनशासन की बड़ी भारी सेवा करी। प्राचार्य स्वयंप्रभसूरि और रत्नप्रभसूरि के बनाये हुये महाजनसंघ का रक्षण पोषण और वृद्धि करी । सिन्ध जैसी विकट भूमि में विहार कर सब से पहिले लुप्त हुये जैनधर्म का आपश्री ने ही प्रचार किया, हजारों जैनमंदिर और विद्यालयों की स्थापना करवाई और हजारों साधु साध्वियों को दीक्षा दे श्रमणसंघ में वृद्धि करी इत्यादि । आपश्री का जैनशासन पर बड़ा भारी उपकार हुआ है। आपने सिन्धप्रान्त में विहार कर जैनधर्म का बड़ा भारी झंडा
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