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आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ]
[ औसवाल संवत् ६१८-६३५
धम्मलद्धं मिअं काले, जत्तत्थं पणिहाणवं । नाइमत्तं तु भुजेज्जा, बंभचेररओ सया ॥ विभ्रू परिवज्जेज्जा, सरीरपरिमंडगं । बंभचेररओ भिक्खू, सिंगारत्थं न धारए ॥ सह े रूवे य गंधे य, रसे फासे तहेव य । पंचविहे कामगुणे, णिच्चसो परिवज्जए ||
तथा ब्रह्मचारियों के लिये निम्नलिखित बातें दूषण रूप बतलाई हैं तथा इन नियमों से आप समझ सकते हो कि जैनधर्म में ब्रह्मचर्य का कितना महत्व है और इस व्रत के प्रभाव से ब्रह्मचारी पुरुषों को देवता भी नमस्कार करते हैं । यथा -
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सुखशय्यासनं वस्त्रं, ताम्बूलं स्नानमर्दनम् । दन्तकाष्टं सुगन्धं च ब्रह्मचर्यस्य दूषणम् ॥ ३७ ॥ शृंगार मदनोत्पाद, यस्मात्स्नानं प्रकीर्तितम् । तत्स्मात्स्नानं परित्यक्तं, नैष्टिकैर्ब्रह्मचारिभिः ॥ ३८ ॥ देव-दानव-गंधव्वा, जक्ख- रक्खस किन्नरा । बंभयारिं नमसंति, दुक्करं जे करंति तं ॥ नैष्टिकं ब्रह्मचर्यं तु, ये चरन्ति सुनिश्चिताः । देवानामपि ते पूज्यः, पवित्रं मङ्गलं तथा ॥ ४० ॥ शीलानामुत्तमं शीलं व्रतानामुत्तमं व्रतम् । ध्यानानामुत्तमं ध्यानं, ब्रह्मचर्ये सुरक्षितम् ॥ ४१ ॥ महानुभावों ! ब्रह्मचर्य व्रत सब व्रतों का राजा है सब व्रतों से इस व्रत का पालना दुष्कर है धन्य है स्थुलभद्र को कि जिस वेश्या के साथ बारह वर्ष रंग राग में रहे फिर उसी के वहां चतुर्मास कर अपनी परीक्षा दी । धन्य है सेठ सुदर्शन को कि इस व्रत की रक्षा के लिये शूली को स्वर्ग समझ कर हंसता २ शूल चढ़ गया । धन्य है माता धारणी को कि ब्रह्मचर्यव्रत की रक्षा के लिये जिभ्या निकाल कर प्राणों की आहुती दे दी। इस प्रकार के सैकड़ों उदाहरण हैं - जो कई व्यक्ति त्रिकरण शुद्ध ब्रह्मचर्य व्रत की आराधना करता है उसके दर्शन मात्र से जनता के पाप क्षय हो जाते हैं इतना हो क्यों पर ब्रह्मचारी पुरुष के दर्शन से रोगियों का रोग भी नष्ट हो जाता है जैसे कि चन्द्रपुर नगर में एक पुरंधर नाम का धनाढ्य सेठ वसता था उसके सुदर्शन नाम का पुत्र था किसी महात्माजी के व्याख्यान में ब्रह्मचर्य व्रत का महात्म्य सुनकर उसने प्रतिज्ञा करली कि मैं आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत पालूंगा इस महान व्रत के साथ सुदर्शन सत्य वचन बोलने का भी नियम ले लिया कि मैं कभी असत्य नहीं बोलूंगा। इन दोनों व्रतों की रक्षा के लिये सुदर्शन अपने मकान एक एकान्त कमरा में रहने लगा जिसमें स्त्रियों के लिये तो वह किसी का मुंह देखना भी नहीं चाहता था इस प्रकार सुदर्शन अपने व्रतों का सुखपूर्वक पालन कर रहा था ।
एक समय नगर के बाहर एक तापस आया बहुत से लोग उसके दर्शन करने को गये एक कुष्टी भी वहां गया और तापस के चरणों में नमस्कार करके अपने कुष्ट रोग मिटाने की प्रार्थना की ? इस पर तपस्वी ने कहा कि यदि तू सुदर्शन के दर्शन करले तो उसके दर्शनमात्र से तेरा सर्व रोग चला जायगा । बस फिर तो कुष्ट क्या चाहता था कुष्टी चल कर सेठजी के द्वार पर आया और प्रार्थना करने लगा कि हे महापुरुष कृपा कर इस कुष्टी को एक बार दर्शन दीजिये ? यह महोपकार का काम है मैं आपका उपकार कभी नहीं भूलूंगा । इत्यादि परन्तु सुदर्शन ने इस पर ध्यान नहीं दिया जब सुदर्शन के पिता को दया आ गई और जाकर अपने पुत्र को आग्रह के साथ कहा अतः पिता के कहने से सुदर्शन ने मकान की एक बारी खोल कर कुष्ट के सामने देखा तो कुष्टी का रोग चला गया जिससे जनता को बड़ा ही श्राचर्य हुआ और नगर भर में सुदर्शन की महिमा फैल गई अब तो थोड़ा ही दर्द क्यों न हो पर बिना पैसा बिना परिश्रम से अपना
mera और धर्मसी ]
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