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________________ वि० सं० २१८-२३५ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास जब सन्यासीजी अपने प्रासन पर बैठे तब धर्मसी ने पूछा कि महात्माजी इनके अलावा आप आत्मकल्याण की विद्या भी जानते हैं मैं उसको ही चाहता हूँ, सन्यासीजी ने कहा कि आत्मकल्याण के लिये केवल एक ही साधन है और वह है ब्रह्मचर्यव्रत यदि मनुष्य ४० वर्ष तक अखण्ड ब्रह्मचर्यव्रत पालन करता है वह वचनसिद्धि को प्राप्त कर लेता है इत्यादि ब्रह्मचर्य का महात्म्य बतलाते हुये कहाः मैथुनं ये न सेवन्ते ब्रह्मचारी दृढव्रताः । ते संसार समुद्रस्य पारं गछन्ति सुव्रताः ॥ ब्रह्मचर्येण शुद्धस्य सर्वभूतहितस्य च । पदे षेद यज्ञफलं प्रस्थितस्य युधिष्ठिर ! ॥ एकराव्युषितस्यापि यागतिर्ब्रह्मचारिणः । न सा शकसहस्रेण वक्तुं शक्या युधिष्ठिरः ॥ ब्रह्मचर्य भवेन्मूलं सर्वेषां धर्मचारिणाम् । ब्रह्मचर्यस्य भङ्गेन व्रताः सर्वे निरर्थकाः ॥ समुद्रतरणे यद्वत् उपायो नौका प्रकीर्तिता। संसार तरणे तद्वत् ब्रह्मचर्य प्रकीर्तितम् ॥ ये तपश्च तपस्यन्ति कौमाराः ब्रह्मचारिणः । विद्यावेदव्रतस्नाता दुर्गाण्यपि तरन्ति ते ॥ इसके अलावा घर में रहे हुये गृहस्थ को भी ब्रह्मचर्यव्रत पालन करना चाहिये सन्तान की इच्छा वालों को भी ऋतुकाल वर्ज के सदैव ब्रह्मचर्यव्रत पालन करना चाहिये -- ऋतुकाले व्यतिक्रान्ते यस्तुसेवेत मैथुनम् । ब्रह्महत्याफलं तस्य सूतकं च दिने दिने ॥ ग्रहणेऽप्यथ संक्रान्तावमावास्यां चतुर्दश्याम् । नरश्चाण्डालयोनिः स्यातैलाभ्यङ्गस्त्रीसेवने ॥ अमावास्यामष्टमी च पौर्णमासी चतुर्दशीम् । ब्रह्मचारी भनित्यगस्पृप्तौ स्नातको द्विजः १ ॥ इत्यादि सन्यासीजी ने ब्रह्मचर्यव्रत पर खूब ही प्रकाश डाला। धर्मसी ने सोचा कि जिस मजहब के देव कामातुर और गुरु ऋतुदान देने वाले है। उस धर्म में ब्रह्मचर्य के इस प्रकार गुण गाये जाते हों यह असंभव सी बात है पर यह वस्तु किसी अन्य धर्म से ली गई हो ऐसा संभव होता है। खैर धर्मसी वहां से उठकर जैन साधुओं के पास आया और पूछा कि जैनधर्म में ब्रह्मचर्य का महत्त्व किसी प्रन्थ में बतलाया है ? मुनिराज ने कहा धर्मसी एक ग्रन्थ में ही क्यों पर सैकड़ों प्रन्थों में ब्रह्मवयं का महत्त्वपूर्ण वर्णन किया है और वह भी केवल कहने मात्र का नहीं पर मल्लीनाथ, नेमिनाथ तथा जम्बू और वज्रस्वामी श्राजीवन ब्रह्मचारी रहे। इतना ही क्यों पर जैनधर्म में ब्रह्मचर्यव्रत के रक्षणार्थ ऐसे सख्त नियम बनाये हैं कि जैसे जं विवित्तमणाइन्न', रहिअं थीजणेण य । बंभचेरस्सरक्खट्ठा, आलयं तु निसेवए ॥ मणपल्हायजणणिं, कामराग विवड्वणिं । बंभचेररओ भिक्खू, थीकहं तु विवजए॥ समं च संथवं थीहिं, संकहं च अभिक्खणं । बंभचेररओ भिक्खू, णिचसो परिवजए ॥ अंग-पचंगसंठाणं, चारुल्लवियपेहियं । बंभचेररओ थीणं, चक्खुगेझं विवजए । कूइयं रुइयं गीयं, हसियं थणिय कंदियं । बंभचेररी थीणं, सोयगेझं विवज्जए । हासं खिडं रतिं दप्पं, सहसाऽवत्तासियाणि य । बंभचेररओ थीणं, नाणुचिंते कयाइवि ॥ पणीयं भत्तपाणं तु, खिप्पं मयविवड्डणं । बंभचेररओ भिक्खू, णिचसो परिवज्जए ॥ For Private & Personal Use Only [ब्रह्मचर्य व्रतका महत्व Jain Edu International
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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