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आचार्य यक्षदेवरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ६१८-६३५
२२--प्राचार्य श्री यक्षदेवसूरि ( चतुर्थ )
रत्नं सुंचित वंश मध्य सुमतो यो यक्षदेव स्तुतः । ज्ञानापार महोदधिः सुगदितो मुख्योऽभवद्गन्थकृत् ।। साहित्यस्य विचार चार सरणा वग्रे मतः सर्व वित् । मोक्षेच्छूनयमादिशत् सुसरलं मागे सुवन्यस्ततः ॥
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चार्य श्री यक्षदेवसूरीश्वर महाप्रतिभाशाली एवं जैनधर्म के एक धुरंधर आचार्य हुये हैं। __ आप श्रीमान् आजीवन ब्रह्मचारी थे। अंबा पद्मा छूपत्ता और विजय एवं चार
देवियां हमेशा आपकी सेवा करती थी आप वचनसिद्धि आदि अनेक लब्धियों और
कई चमत्कार विद्याओं से विभूषित थे। कई राजा महाराजा आपके चरण कमलों की सेवा करते थे। आपका जीवन पूर्ण रहस्यमय था। पट्टावली कारों ने लिखा है कि आप सत्यपुर नगर के सुचन्ति गोत्र के दानवीर लाखण की सुशीला भार्या मांगी के धर्मसी नाम के लाड़ले पुत्र रत्न थे।
आपकी बालकीड़ा एक होनहार प्रचण्ड प्रतापी पुरुषोंचित थी। विनयगुण और धार्मिक संस्कार तो आपके घराने में शुरू से ही चले ही आरहे थे। अतः धर्मसी के लिये इन गुणों के प्राप्त करने के लिये किसी अध्यापक की आवश्यकता ही नहीं थी। माता पिता ही उन के अध्यापक थे।
शाह लाखण के सात भाई और सात पुत्र थे और कई नगरों में आपकी दुकानें भी थी तथा विदेशियों के साथ आपका विशाल व्यापार था । एक दुकान आपकी जावाद्वीप में भी थी। व्यापार में आपने करोड़ों द्रव्य पैदा किया था। शाह लाखण जैसे द्रव्य पैदा करने में चतुर व्यापारी था। वैसे ही न्यायोपार्जित द्रव्य व्यय करने में भी कुशल था । जो कार्य करता था वह दीर्घ दृष्टि एवं सद्विचार से ही करता था और शुभकार्य में उदारतापूर्वक लक्ष्मी का सदुपयोग भी किया करता था। आपने उपाध्याय पद्महंस के उपदेश से सत्यपुर में भगवान पार्श्वनाथ का विशाल मन्दिर बनाकर उसमें ४१ अगुल के प्रमाण माली भगवान पार्श्वनाथ की सुवर्णमय मूर्ति की प्रतिष्ठा करवाई तथा श्री शत्रुञ्जय तीर्थ की यात्रार्थ एक विराट संघ निकाला और चांदी का थाल सोने की कटोरी में पांच पांच मुद्रिकायें साधर्मी भाइयों को पहिरामणी दी इत्यादि इन शुभ कार्यों में शाह लाखन ने एक करोड़ द्रव्य खर्च कर अनंत पुन्योपार्जन किया जिससे शाह लाखन की उज्ज्वल कीर्ति चारों ओर फैल गई थी।
___एक समय सत्यपुर के उद्यान में एक सन्यासी पाया था और वह बाल ब्रह्मचारी होने से उसके पास कई विद्यायें भी थी जिसका चमत्कार दिखा कर जनता को अपनी ओर आकर्षित किया करता था। 'चमत्कार को नमस्कार' इस युक्ति से जनता में सन्यासीजी की बहुत महिमा फैलगई।
एक समय धर्मसी अपने साथियों के साथ सन्यासीजी के पास चला गया और सन्यासीजी को देखा कि कभी सिंह तो कभी सर्प कभी मयूर तो कभी गरुड़ बन जाते हैं। कभी स्थानान्तर तो कभी आकाश• गमन, कभी मिष्टान्न का ढेर तो कभी रुपयों का ढेर लगा कर आये हुये लोगों को संतुष्ट कर रहे हैं ।
सत्यपुर के श्रेष्टि लाखन ]
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