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________________ वि० सं० २३५-२६० वर्ष [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास महादेव को श्रादेश देते हुए भगवान महावीर और आचार्य श्री की जय ध्वनि के साथ सभा विसर्जन हुई । आज तो डामरेलपुर में जहाँ देखो वहाँ श्रेष्टिवर्य महादेव और शिखरजी के संघ की ही बातें हो रही हैं। साथ में प्राचार्य कक्क सूरिजी महाराज के प्रभाव की प्रभावना भी सर्वत्र मधुर स्वर से गाई जा रही थी। जैसे महादेव के वहाँ संघ की तैयारियों हो रही थीं वैसे ही नागरिक लोग संघ में जाने के लिये तैयारियें कर रहे थे । क्योंकि यह संघ महीना पन्द्रह दिनों में लौट कर आने वाला नहीं था। कम से कम छः मास लगना तो संभव ही था। दूसरे श्राज पर्यन्त शिखरजी का संघ नही निकला था अतः सबकी भावना संघ में जाने की थी। भला ऐसा सुअवसर हाथों से कौन जाने देने वाले थे । श्रेष्टिवर्य महादेव जैसा धर्मज्ञ था वैसा ही वह उदार दिल वाला भी था संघ निकालने में वह अपना अहोभाग्य समझता था केवल सिन्ध में ही नहीं पर दूर २ प्रदेश में आमंत्रण पत्रिकायें भेज दी थीं। साधु साध्वियों के लिये अपने कुटुम्बियों तथा संबन्धियों को बिनती के लिये भेज दिये थे। मामला दूर का होने से दो तीन स्थान ऐसे भी मुकर्रर कर दिये थे कि देरी से पधारने वाले साधु साध्वियां संघ में शामिल होसकें। ___ महादेव अपने राजा के पास गया, चौकी पहरे के लिये राजा से प्रार्थना की जिसको तो राजा ने स्वीकार करली पर साथ में महादेव ने एक यह भी अर्ज की कि डामरेल नगर के बहुत से जैन लोग संघ में चलने वाले हैं पीछे उनके घरों की एवं मालमिलकियत की रक्षा के लिये आप पर ही छोड़ दिया जाता है। राजा ने कहा महादेव तू बड़ा ही भाग्यशाली है। डमरेल से इस प्रकार का संघ निकलना तेरी कीर्ति तो है ही पर साथ में डमरेल नगर की भी अमर कीर्ति है। हम लोगों से और कुछ नहीं बने तो भी तुम्हारे इस पुनीत कार्य के लिये इतना तो हम भी कर सकते हैं और इसके लिये तुम निशंक रहो किसी की एक शीली मात्र भी आगे पीछे नहीं होगी चाहे खुले मकान छोड़ जाओ इत्यादि । महादेव ने बड़ी खुशी मनाते हुये कहा कि हुजूर यह मेरा नहीं पर श्रापका ही यश एवं कीर्ति है और श्रापकी कृपा से ही मैंने इस प्रकार वृहद् कार्य को रठाया है। और श्रापकी सहायता से ही इस कार्य में सफलता प्राप्त करूँगा। महादेव राजा का परमोपकार मानता हुश्रा अपने मकान पर आया। और नागरिक लोगों को राजा का संदेशा सुना दिया तब तो नहीं चलने वालों का भी संघ में चलने का विचार होगया । ठीक चतुर्मास समाप्त होते ही मार्गशीर्ष शुक्ल त्रोदशी के शुभ मुहूर्त में सूरिजी के वासक्षेप पूर्वक श्रेष्ठिवर्य महादेब के संघपतित्व में संघ ने प्रस्थान कर दिया। संघ के अन्दर कई रत्नों की मूर्तियां सुवर्ण के देरासर पूजाभक्ति के साधन, हजारों साधु साध्वियां और लाखों नर नारी थे । प्रत्येक ग्राम नगर के मन्दिरों के दर्शन तीर्थों पर ध्वजारोहणादि महोत्सव करते हुये, दीन दुखियों का उद्धार और याचकों को दान देते हुये तथा जैनों की वस्तीवाले ग्राम नगरों से भेंट और बधावना होते हुये संघ श्री सम्मेतशिखरजी पहुँचा। जबतीर्थ के दूर से दर्शन हुये तो संघ ने हीरे पन्ने माणिक और मोतियों से बधाया और तीर्थङ्करों की निर्वाणभूमि का स्पर्शन कर अपना अहोभाग्य सममा तथा अष्टान्हिका महोत्सव ध्वजारोहण पूजा प्रभावना साधर्मी वात्सल्यादि धर्म कृत्य किये । सूरिजी और संघपति का अधिक परिचय होने से सूरिजी ने जान लिया कि संघपति महादेव बड़ा ही त्यागी वैरागी और आत्मार्थी है। यदि यह दीक्षा ले ले तो इसका शीघ्र कल्याण हो सकता है । एक दिन सूरिजी ने संघपति को कहा महादेव यह तीर्थभूमि है तुमने संघ निकाल कर अनंत पुन्योपार्जन किया पर अब तेरी दीक्षा का समय है। यदि इस तीर्थ भूमि पर तू दीक्षा ले तो तेरा जल्दी कल्याण होगा। महा६६० [ शिखरजी का संघ--महादेव की दीक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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