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आचार्य ककसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ६३५-६६०
सूरिजी ने डमरेलपुर में चतुर्मास कर दिया था। वहाँ श्रष्ठि गोत्रीय शाह महादेव प्रभूत सम्पति वाला श्रावक रहता था । उसने सूरिजी से प्रार्थना की कि प्रभो ! मैंने आचार्य यज्ञदेव सूरि के पास परिग्रह व्रत का प्रमाण किया था और साथ में यह भी प्रतिज्ञा करली थी कि प्रमाण से अधिक बढ़ जायगा तो मैं उस द्रव्य को शुभ क्षेत्र में लगा दूंगा पूज्यवर ! इस समय मेरे पास में प्रमाण से बहुत अधिक द्रव्य बढ़ गया है। अब मैं व्यापार तो नहीं करता हूँ पर उस बढ़े हुए द्रव्य का मुझे क्या करना चाहिये कौन से कार्य में लगाना चाहिये इसके लिये मैं आपकी अनुमति लेना चाहता हूँ । कृपा कर मुझे ऐसा मार्ग बतलावें कि जिससे मेरा कल्याण हो और व्रत में अतिचार भी न लगे। सूरिजी ने सोच विचार कर कहा महादेव शास्त्र में सात क्षेत्र कहे हैं पर जिस समय जिस क्षेत्र में अधिक श्रावश्यकता हो उस क्षेत्र को पोषणा करना अधिक लाभ का कारण हो सकता है । मेरी राय से तो बीस तीर्थङ्करों की निर्वाण भूमि श्री सम्मेतशिखरजी तीर्थ की यात्रा निमित्त संघ निकाल कर चतुर्विध श्री संघ को यात्रा करवाना अधिक लाभ का कारण होगा । कारण उस विकट प्रदेश में साधारणव्यक्ति जा नहीं सकता है और कई अस से इस प्रान्त से उस तीर्थ की यात्रार्थ संघ नहीं निकला है । अतः यह लाभ लेना तेरे लिये बड़ा ही कल्याण का कारण है। सूरिजी के कहने को महादेव ने शिरोधार्य कर लिया बस, फिर तो देरी ही क्या थी । शाह महादेव ने अपने पुत्र पौत्रों को बुलाकर कह दिया कि गुरु महाराज की सम्मति पूर्वक मैने सम्मेत शिखरजी की यात्रार्थं संघ निकालने का निश्चय कर लिया है | अतः तुम लोग संघ के लिये सामग्री तैयार करो । यह सुन कर सबको बड़ी खुशी हुई। कारण वे लोग चाहते थे कि प्रमाण से अधिक द्रव्य घर में रखना अच्छा नहीं है। अतः उन सबको खुशी होना स्वाभाविक बात थी ।
अहाहा ! वह जमाना कैसा धर्मज्ञता का था कि महादेव तो क्या पर उसके कुटुम्ब में भी कोई ऐसा नहीं था जो यह पसंद करता हो कि प्रमाण से अधिकद्रव्य किसी प्रकार से अपने काम में लिया जाय । इस सत्यता के कारण ही तो बिना इच्छा किये लक्ष्मी उन सत्यवादियों के यहाँ रहना चाहती थी और लक्ष्मी को यह भी विश्वास था कि यह लोग मेरा कभी दुरुपयोग न करेंगे और मुझे लगावेंगे तो अच्छे कार्यों में ही लगावेंगे. परन्तु आज का चक्र उल्टा ही चल रहा है। अव्वल तो जीवों के उतनी तृष्णा है कि वे व्रत लेते ही नहीं कदाचित कोई लेते हैं तो इतनी तृष्णा बढ़ाते हैं कि दस हजार की रक़म अपने पास होगी तो लक्ष रुपयों का परिग्रह रक्खेंगे कि जीवन भर में ही वह तृष्णा शान्त नहीं होती है । शायद पूर्वभव के पुन्योदय प्रमाण से अधिक परिग्रह बढ़ जाय तो कई विकल्प कर लेते हैं जैसे इतना मेरे इतना स्त्री के इतना पुत्र के इतना पुत्रवधु एवं पौत्र के इत्यादि पर ममता तो मूल पुरुष की ही रहती है ।
श्रेष्ठ व महादेव ने अपने कुटुम्ब वालों की सम्मति ले ली तब तो सूरिजी के व्याख्यान में श्राकर श्रीसंघ को अर्ज की कि मेरी भावना तीर्थाधिराज श्री सम्मेतशिखरजी की यात्रार्थ संघ निकालने की है। अतः श्री संघ मुझे आदेश दीरावें । इसको सुन कर श्रीसंघ ने बहुत खुशी मनाई और श्रेष्ठिव महादेव को बड़ा ही धन्यवाद दिया । कारण सिन्ध प्रान्त से शत्रुंजय का संघ तो कई बार निकला था पर शिखरजी का संघ उस समय पहिले ही था अतः जनता में उत्साह फैल जाना एक स्वाभाविक बात थी । इस विषय में सूरिजी ने तीर्थयात्रा से दर्शन की विशुद्धता, संघपति का महत्त्व, द्रव्य की सफलता और छरीपाली यात्रा का आनंद का थोड़ा सा किन्तु सारगर्भित वर्णन करते हुये महादेव और श्रीसंघ के उत्साह में अभिवृद्धि की तत्पश्चात्
श्री शिखरजी का संघ और महादेव की दीक्षा ]
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