________________
वि० सं० २३५-२६० वर्ष]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
बस फिर तो देरी ही क्या थी सब पशुओं को छोड़ दिये कि वे सूरिजी को आशीर्वाद देते हुये अपने अपने स्थान में जाकर अपने बाल बच्चों से मिले । और सूरिजी को आशीर्वाद देने लगे।
सूरिजीने उन आचार पतित लोगों की शुद्धिकर अहिंसा परमोधर्म के उपासक बनाये । तत्पश्चात् सूरिजीने उस मण्डल के छोटे बड़े प्रत्येक ग्रामों में विहार कर हजारों मनुष्यों को पापाचार छुड़ा कर जैनधर्मोपासक बना लिये । आज बेतुकी बातें करने वालों को यह मालूम नहीं है कि उन प्राचार्यों ने किस प्रकार भूखे प्यासे रह कर एवं भनेक कठिनाइयों और परिसहों को सहन करके वाममार्गीरूप बन किले को भेद कर अहिंसा एवं जैनधर्म का प्रचार किया था।
आचार्य कक्कसूरि उस मण्डल में घूमते हुये चन्द्रवती पधारे वहाँ के श्रीसंघ की विनती से वह चतुमास चन्द्रावती में किया। शाह डावरके पुत्र कल्याणादि को दीक्षा दी और शाह डावर के निकाले हुये शत्रुजय तीर्थादि तीर्थों की यात्रार्थ संघ में पधार कर तीर्थों की यात्रा की। तदन्तर सूरिजी सोराष्ट्र प्रान्त में विहार कर सर्वत्र जैनधर्म के प्रचार को बढ़ा रहे थे। उस समय वर्द्धमानपुर नगर में श्रीमालवंशीय शाह देदा ने भगवान महावीर का एक विशाल मन्दिर बनाया था। जब मंदिर तैयार होगया तो उसकी प्रतिष्ठा के लिये प्राचार्य कक्कसूरि को विनती कर कहा कि प्रभो ! श्राप वर्द्धमानपुर पधार कर हमलोगों को कृतार्थ करें। अतः सूरिजी वर्द्धमानपुर पधारे और शाह देदा के बनाये जिन बिम्बों की अंजनसिलाका एवं मंदिर की प्रतिष्ठा बड़े ही समारोह से करवाई। उस समय जैन मंदिर मूर्तियों पर चतुर्विध श्रीसंघ की अटूट श्रद्धा थी और अपना न्यायोपार्जित द्रव्य ऐसे पवित्र कार्य में व्यय कर अपना कल्याण करते थे।
सूरिजी महाराज सौराष्ट्र से विहार कर कच्छभूमि में पधारे और सर्वत्र भ्रमन करते माडव्यपुर में चतुर्मास किया। आपका व्याख्यान हमेशा बँचता था एक दिन के व्याख्यान में किसी ने प्रश्न किया कि जैनधर्म किसने और कब चलाया ?
सूरिजी महाराज ने उत्तर दिया कि जैनधर्म अनादिकाल से प्रचलित है और सृष्टि के साथ इस धर्म का घनिष्ट सम्बन्ध है जब सृष्टि अनादि है तब जैनधर्म भी अनादि है इसमें शंका ही किस बात की है ?
वादी तब फिर यह क्यों कहा जाता है कि जैनधर्म में पहिले तीर्थङ्कर ऋषभदेव हुये हैं ?
सूरिजी यह काल की अपेक्षा से कहा जाता है । कारण, जैनों में काल दो प्रकार का माना है १उत्सर्पिणी २-अबसर्पिणी जिसमें इस समय अवसर्पिणी काल वरत रहा है और इस अवसर्पिणी कालमें २४ तीर्थङ्कर हुये हैं जिसमें प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव हुये हैं। अतः प्रथम तीर्थङ्कर आदिनाथ एवं ऋषभदेव कहा जाता है और भूतकाल में ऐसी अनंत उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल व्यतीत हो चुका है उसमें तीर्थङ्करों की भी अनन्त चौबीसियाँ होगई थी इत्यादि विस्तार से समझाने पर जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ा और प्रश्न कर्ता को भी ज्ञात होगया कि जैनधर्म एक पुराणा धर्म है।
सूरिजी ने कच्छ में भ्रमण कर कई मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई कई भावुकों को जैनधर्म की दीक्षा दी और कई नये जैनधर्मी भी बनाये बाद वहाँ से बिहार कर आपने सिन्ध धरा को पावन किया।
सूरिजी सिन्ध में भ्रमण करते डमरेल नगर में पधारे वहाँ उपकेश वंशियों की अधिक संख्या थी वे लोग मरुधर से व्यापारार्थ आये थे । वे दिन ही उपकेश वंशियों की वृद्धि के थे। उनकी धन के साथ जन की भी खूब बृद्धि होती थी । अतः उपकेश वंशी लोग बहुत प्रदेश में फले फूले नजर आते थे।
जैनधर्म की प्राचीनता का प्रश्न
Jain Education international
FOOPTIvare a Persorner useromy)-------------
www.jainelibrary.org