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________________ आचार्य ककरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ६३५-६६० न हिंसासदृशं पापं त्रैलोक्ये सचराचरे, हिंसको नरकं गच्छेत् स्वर्ग गच्छेदहिंसकः ॥ धर्मो जीवदयातुल्यो न क्वापि जगतीतले, तस्मात्सर्वप्रयत्नेन कार्या जीवदया नृभिः । एकतः क्रतवः सर्वे समग्रवर दक्षिणाम्, एकतो भयभीतस्य प्राणिनः प्राणरक्षणम् ।। सर्वे वेदा न तत्कुयुः सर्वे यज्ञाच भारत !, सर्वे तीर्थाभिषेकाच यत्कुर्यात्प्राणिनां दया । अहिंसा परमोधर्मः अहिंसैव परं तपः, अहिंसैव परं दानमित्याहुमुनयः सदा ॥ ईश्वर ने फरमाया है कि किसी जीव को मारोगे तो तुमको भविष्य में नरक के दुःख भुक्तने पड़ेंगे और जन्म जन्म में तुमको भी इसी प्रकार मरना पड़ेगा अतः तुम जीवों की रक्षा करो जीवों की रक्षा जैसा कोई धर्म ही नहीं है । ईश्वर ने यह भी कहा है कि तुम जीवों का मांस भक्षण मत करो । जैसे कि यः स्वार्थ मांसपचनं कुरुते पापमोहितः, यावन्ति पशुरोमाणि तावत्स नरकंब्रजेत । परमाणेस्तु ये प्राणान्स्वान्पुषान्ति हि दुर्धियः, आकल्पं नरकान्भुत्तत्वा भुज्यन्ते तत्रतैः पुनः ।। __ सज्जनों ! पूर्व महर्षियों ने मांस के साथ मदिरा का भी निषेध किया है देखिये सुरां पीत्वा द्विजो मोहादग्निवणों सुरां पिवेत्, तया सकाये निर्दग्धे मुच्यते किल्मिषात्ततः। तस्माद् ब्राह्मण राज्यन्यौ वैश्यश्च न सुरां पिवेत्, गौडी माध्वी च पैष्टी च विज्ञया त्रिविधा सुरा॥ मदिरापान मात्रेण बुद्धिर्नश्यति दूरतः, वैदग्धी बन्धुरस्यापि दौर्भाग्यणेन कामिनी । मद्यपस्य शवस्येव लुठितस्य चतुष्पथे, मूत्रयन्ति मुखे श्वानो व्यात्त विवरशङ्कया ।। विवेकः संयमो ज्ञानं सत्यं शोचं दया क्षमा, मद्यात्मलीयतें सबं तण्या वह्निकणादिव । दोषाणां कारणं मयं मद्य कारणमापदाम् , रोगातुर इवापथ्यं तस्मान्मयं विवर्जयेत् ॥ इत्यादि सूरिजी ने निडरता पूर्वक उन जघन्य कर्मों का फल नरकादि घोर दुःखों का अतिशय वर्णन कर उन भद्रिकों की सरल आत्मा में वे भाव पैदा कर दिये कि थोड़े समय पूर्व जिस निष्ठुर कर्म को अच्छा समझते थे उसी को वह लोग घृणा की दृष्टि से देखने लगे और वे बोल उठे कि महात्माजी ! हम लोगों ने तो यही सुना था कि देवी को बलि देने से वह संतुष्ट होती है जिससे मनुष्यों का उदय और विश्व की शान्ति होती है । सूरिजी ने कहा महानुभावो ! जिस पदार्थ को देख मनुष्य भी घृणा करता है उससे देवता कैसे संतुष्ट होते होंगे। यह तो किसी पेट भरे मांस लोलुपी ने देवताओं के नाम से कुप्रथा चलादी है और भद्रिक लोग उन पाखण्डियों के जाल में फंस कर इस प्रकार के जघन्य कर्म करने लग गये हैं। इस लिये ही तो दयालु परमात्मा ने जगत् के जीवों के काल्याण के लिये उपरोक्त हुक्म फरमाया है । यदि आप परमात्मा के प्यारे भक्त हैं तो आपको परमेश्वर का हुक्म मानना चाहिये । ___ उन लोगों ने कहा महात्माजी ? हम परमात्मा के हुकुमको नहीं मानेंगे तो और किसके हुकुम को मानेंगे ? सूरिजी-यदि आप परमात्मा का हुकुम मानते हो तो इन पशुओं को छोड़दो और अहिंसा धर्म को स्वीकार करलो इससे परमात्मा खुश होगा और आपका कल्याण भी होगा । हम जो कहते हैं वह आप के अच्छा के लिये ही कहते हैं। दूसरे हमको आपसे कोई स्वार्थ नहीं है। सूरीश्वरजी का उपदेश ८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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