________________
आचार्य ककसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ६३५-६६०
देव ने अपने दिल में सोचा कि सूरिजी बड़े ही उपकारी पुरुष हैं और मेरे पर आपका धर्म प्रेम है अब संसार में रहकर मुझे करना ही क्या है। अतः सूरिजी की आज्ञा शिरोधार्य करना ही कल्याण का कारण है। अतः महादेव ने अपनी स्त्री और पाँचों पुत्रों को बुला कर कहा कि मेरी इच्छा यहाँ दीक्षा लेने की है। पुत्रों ने कहा आपकी इच्छा दीक्षा लेने की है तो संघ लेकर घर पर पधारो वहाँ आप दीक्षा लेलेना इत्यादि । महादेव ने कहा कि मेरे अन्तराय क्यों देते हो ? मेरी इच्छा तो इस तीर्थ भूमि पर ही दीक्षा लेने की है, महादेव की स्त्री ने सोचा कि जब मेरे पतिदेव दीक्षा लेने को तैयार होगये हैं तो फिर मुझे घर में रह कर क्या करना है, अतः वह भी तैयार होगई । जब संघ में इस बात की चर्चा फैली तो कई १४ नर-नारी दीक्षा लेने को तैयार होगये । बस एक तरफ तो संघपति की वरमाल महादेव के बड़े पुत्र लाला को पहिनाई गई और दूसरी ओर संघपति महादेव आपकी धर्मपत्नी और १४ नर नारियों एवं १६ मुमुक्षुओं को भगवती जैन दीक्षा दी गई । अहा हा ! जब जीवों के कल्याण का समय आता है। तब निमित्त कारण भी सब अनुकूल बन जाता है। इसके लिये मंत्री महादेव का ताजा उदाहरण सामने है।
सूरिजी रात्रि में संथारा पौरसी भणाकर शयन किया था जब आप निद्रा से मुक्त हो ध्यान में बैठते थे इतने में तो देवी साच्चयिक ने आकर सरिजी कों वन्दन की सूरिजी ने धर्मलाभ देकर कहा देवीजी भाप अच्छे मौका पर आये। देवी ने कहां प्रभों ! आप तीर्थ की यात्रा करे और मैं पीछे रहूँ यह कब बन सकता है केवल मैं एकली नहीं हूँ पर देवी मातुला भी साथ में हैं इसने ही मुझे आकर संघ की खबर दी थी इत्यादि । सूरिजी ने कहाँ कहो देवीजी गच्छ सम्बन्धी और कुछ कहना है, देवी ने कहाँ पूज्यवर ! मैं क्या कहूँ। आप स्वयं प्रज्ञावान है। फिर भी इतना तो मैं कह देती हूँ कि आप इधर पधारे हैं तो यहीं विहार कर इस तीथ भूमि पर ही अपना कल्याण करे और मुनि कल्याण कलस आपके पद योग्य एवं सर्व गुण सम्पन्न है इनको सूरि पद देकर संघ के साथ भेजदें कि उधर बिहार कर गच्छ की उन्नति करते रहेंगे । सूरिजी ने कहा ठीक है देबीजी मुनि कल्याण कलस मेरे गच्छ में एक योग्य विद्याबली एवं शास्त्रों का पारंगत मुनि है मैं इनको सूरि मंत्र का आराधन तो पहले से ही करवा दिया हैं फिर आपकी सम्मति होगई। देवीजी। आपने हमारे पूर्वजों को भी प्रत्येक कार्य में समय समय सहायता पहुँचाई है और आज मुझे भी आपने सावधान किया है। अब मैं कल सुबह ही मुनि कल्याण-कलस को सूरि पद अर्पण कर दूंगा। दोनों देवियां सूरिजी को वंदन कर अदृश्य होगई।
सूरिजी महाराज ने सुबह होते ही अपनी नित्य क्रिया से फुरसत पाकर संघ को एकत्र किया और कहा कि मैं अपना पदाधिकार मुनि कल्याण कलस को देना चाहता हूँ । संघ के लोगों ने विचार किया कि क्या बात है केवल रात्रि में ही सूरिजी ने यह क्या विचार कर लिया । अतः संघ ने विज्ञाप्ति की कि पूज्यवर आप संघ लेकर वापिस पधारें हम लोग सूरिपद के योग्य महोत्सव करेंगे और मुनिकल्याण कलस को सूरिपद हमारे यहाँ पधार कर ही दीरावें ।
सूरिजी ने कहा मैंने अपना विहार पूर्व में करने का निश्चय कर लिया है । कारण, यहाँ विशेष लाभालाभ का कारण है । आपके संघ के लिये मैं सूरि बन देता हूँ वह आपके साथ चलेगा।
बस, सूरिजी ने निश्चय कर लिया तो उसको बदलनेवाला था ही कौन ? उसी दिन विधि विधान के साथ तीर्थभूमि पर सूरिजी ने मुनिकल्याण कलस को सूरिपद से विभूषित कर आपका नाम देवगुप्तसूरि रख सरिजी और देवी की विज्ञापति ]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org