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________________ वि० सं० २३५-२६० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास दिया और आपने ५०० साधुत्रों को पूर्व में विहार करने के लिये अपने पास रख कर शेष साधुओं को देवगुप्तसूर के साथ में संघ भेज दिये । संघ पुनः लौट कर डमरेलपुर नगर में आया । श्रेष्ठिवर्य लाखा ने संघ को साधर्मिक वात्सल्य देकर पांच पांच सुवर्ण मुद्रिकायें और वस्त्रादि की पहरामणी देकर संघ को विसर्जन किया। पूर्व में उस समय बौद्धाचार्य बौद्धधर्म का खूब जोरों से प्रचार कर रहे थे जैनधर्म में उस समय पूर्व में ऐसा कोई प्रभावशाली आचार्य नहीं था कि बढ़ते हुये बौद्धों के बेग को रोक सके । शायद् देवी सच्चायिका की प्रेरणा इसलिये ही हुई हो और यह कार्य कोई कम लाभ का भी नहीं था । सूरिजी ने २०० मुनियों को तो अपने साथ में रक्खे और शेष तीन सौ साधुओं की पचास पचास साधुत्रों की छः टुकड़ियाँ बना दी जिन्हों के ऊपर एक एक पदवीधर नियुक्त कर दिया और पूर्व प्रान्त के प्रत्येक नगर में विहार का आदेश दे दिया । बस, फिर तो था ही क्या। इस सिलसिले से विहार करने से जैसे सूर्य के सामने तारों का तेज फीका पड़ जाता है वैसे ही बौद्धों का प्रचार कार्य रुक गया और जैनधर्म का प्रचार बढ़ने लगा। राजगृह चम्पा वैशाला वणिज्य प्राम नगर और कपिलवस्तु तक विहार कर दिया। इधर तो हिमाचल और उधर कलिंग प्रदेश तक जैन साधुओं का विहार हुआ । सूरिजी ने केवल जैनों का रक्षण ही नहीं किया था पर हजारों लाखों जैनेतरों को जैन बना कर उनका भीउद्धार किया— जब सूरिजी ने अपना अन्तिम समय नजदीक जाना तो पुनः शिखरजी पधार गये और अपने साधुओं को शिखरजी के आस पास के प्रदेश में विहार करने की आज्ञा दे दी और उन विद्वान साधुओं ने वहां भ्रमण कर जैनधर्म का खूब ही प्रचार किया। आज जो सिंहभूम मानभूमादि प्रदेश में सारक जाति पाई जाती है यह सब उन श्राचायों के बनाये हुये जैन श्रावक है । सारक जाति के पूर्वजों ने अनेक मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्टा भी करवाई थी कई बार तीर्थ श्री सम्मेत शिखरजी की यात्रार्थ संघ भी निकाले थे और कई मुमुक्षुओं ने आचार्य श्री एवं आपके शिष्यों के पास दीक्षा भी ली थी और वे मुनि कितने ही समय तक वहां विहार भी किया था परन्तु पिछले अर्से में जब जैन श्रमणों का विहार बन्द हुआ तब से ही वे लोग धर्म को भूलते गये तथापि उन लोगों के असली संस्कार थे वे सर्वथा नहीं मिटे पर आज पर्यन्त उनमें अहिंसा वगैरह के संस्कार विद्यमान है आचार्य कक्कसूरिजी महाराज महा प्रभाविक आचार्य हुये आपने अपने २५ वर्ष के शासन समय में सर्वत्र विहार कर जैन धर्म की खूब ही ध्वजा पताका फहराई। आपने जैसे महाजनसंघ एवं उपकेशवंश की वृद्धि की वैसे ही भावुकों को दीक्षा दे श्रमणसंघ की भी अभिवृद्धि की । अन्त में वि० सं० २६० का फाल्गुण कृष्ण अष्टपी के दिन सम्मेतशिखर तीर्थ पर २७ दिन के अनशन पूर्वक समाधि के साथ स्वर्गधाम पधार गये । पट्टावलियों वंशावलियों में सूरिजी के शासन में अनेक महानुभावों ने संसार का त्याग कर बड़े ही वैराग्यभाव से दीक्षा ली उनके नामों में थोड़े से नाम यहां दर्ज कर देता हूँ :१ - उपकेशपुर के कनोजिया गौत्रीय पोलाक ने दीक्षा ली । २ - क्षत्रीपुरा के कर्नाट ३ - माडव्यपुर के बलाह ४- शंखपुर के चिंचट ५- मुग्धपुर गौत्रीय परमा गौत्रीय कल्हण गौत्रीय बागा ने ने के श्री श्रीमाल गौत्रीय मूला ने ६६२ Jain Education International 29 For Private & Personal Use Only 59 "" "" [ सूरिजी के शासन में भावुकों की दीक्षा www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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