________________
आचार्य रत्नप्रभसूर का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् १८३
हो गये क्यों न हो उस समय के जीवों कर्म ही लघु थे क्षयोपशम विशेष था और निकट भविष्य में उनको मोक्ष होने वाली थी अतः थोड़ासा उपदेश भी उन पर विशेष असर कर जाता था ।
ठीक समय पर इधर सूरिजी महाराज महावीर मन्दिर में चतुर्विध श्री संघ की सम्मति लेकर मुनिरत्न को आचार्य पद से विभूषित करके आपका नाम रत्नप्रभसूरि रक्ख दिया था साथ ही साथ मुक्ति रमणी की इच्छावाले ६४ नरनारियों को भगवती जैनदीक्षा दी । तब उधर राजा सारंगदेव ने अपने जेष्ठ पुत्र धर्मदेव को राजपद अर्पण कर दिया इस सुअवसर पर कई पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्य हुए और साधर्मी भाइयों को पेरामणी आदि से सत्कार किया तथा याचकों को पुष्कल दान भी दिया राजा धर्मदेव तख्तनिशान होते ही सब से पहली यह आज्ञा फरमायी कि हमारे पूर्वजों से ही हमारे राज में जीव हिंसा बन्द है तथापि में उसकी दृढ़ता से लिये इस समय और भी कहता हूँ कि यदि हमारे पूर्वजों की आज्ञा का अंग कर कोई भी व्यक्ति बिना कारण किसी भी जीवको मारेगा उस जीव के बदले अपना जीवन देना पड़ेगा इत्यादि ।
मनाई जा रही हैं और आचार्य विशेष हर्ष था कि मुनिरन इसी आचार्य सिद्धसूरि के कारकमलों
अहाहा ! आज उपक्रेशपुर के घर घर में बड़ी भारी खुशियें सिद्धसूरि की भूरि भूरि प्रशंसा हो रही है दूसरे राजाप्रजा को इस बातका उपकेशपुर का वीर क्षत्री एवं चमकता सितारा है आज वही उपकेशपुर में से आचार्यपद पर आरूढ़ हुआ है भला ऐसा कौन मनुष्य होगा कि जिसको अपने देश एवं नगर का गौरव न हौ ? मनुष्यों को तो क्या पर इस कार्य से देवी सच्चायिका को भी बड़ा ही हर्ष था क्योंकि आज उनके मन धारा कार्य सफल हुआ है जिस रत्नप्रभसूरि ने देवी को प्रतिबोध देकर जैन शासन की अधिष्ठात्री एवं उपकेश गच्छोपासिका बनाई थी जिनके नाम के आचार्य को देखने का शोभाग्य मिला है।
राजा सारंगदेवादि श्रीसंघ का अत्याग्रह से सूरिजी ने वह चतुर्मास उपकेशपुर में ही करना निश्चय कर लिया श्रतः आसपास के क्षेत्रों में विहार कर जैन जनता को धर्मोपदेश सुनाया और जहाँ आवश्यकता देखी वहाँ अपने साधुत्रों को चतुर्मास करने की आज्ञा भी प्रदान करदी और आप श्रीमान् यथा समय उपकेशपुर में पधार कर वहाँ चतुर्मास कर दिया । यों तो अनेक महानुभावों ने सूरिजी के चतुर्मास से लाभ उठाया ही था पर विशेष लाभ राजा सारंगदेव प्राप्त किया। आप पहले पढ़ चुके हैं कि राजा सारंगदेव राज खटपट से अलग हो अपना श्रात्म कल्याण करने की उत्कृष्ट भावना रखता था इस पर भी सूरिजी की कृपा होगई तथा चतुर्मास कर दिया फिर तो कहना ही क्या था राजा रात्रि दिन इसी कार्य में व्यतित करता था एवं कई लोग भी राजा के साथ रहकर उनका अनुकरण किया करते थे इत्यादि । सूरिजी के विराजने से उपकेशपुर के लोगों ने यथा रूवि खूब ही लाभ उठाया ।
सूरिजी की अवस्था वृद्ध थी तथापि चतुर्मास के बाद विहार करने की इच्छा रखते थे पर कई भावुकों ने जैन मन्दिर बनवाये उनकी प्रतिष्ठा करवानी थी और कई मुमुक्षु दीक्षा लेने की भावना वाले थे श्रतः सूरिजी से साग्रह प्रार्थना की जिसको स्वीकार कर सूरिजी आस पास के ग्रामों में विहार कर पुनः उपकेशपुर पधार कर भद्रपुरुषों को दीक्षा दी और मन्दिरों की प्रतिष्ठा भी करवाई पर अशुभ कर्म ने सूरिजी पर ऐसा आक्र मण किया कि आपके शरीर में व्याधि उत्पन्न हो गई इस हालत में राजा सारंगदेवादि श्रीसंघ ने सूरिजी से प्रार्थना की कि प्रभो आपने अपने उपकारी जीवन में अनेक भव्यों का उद्धार किया है और शासन की खूब उन्नति की है। आप की वृद्धावस्था है अतः आप हम लोगों पर कृपा कर यहीं विराजें कि आपकी सेवादि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
३३५ www.jainelibrary.org