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आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ५१५
यहां उपकेशगच्छ के साधु हैं और किसी कृष्णाचार्य के साथ राज सभा में वाद विवाद करने को गये हैं और सबजैन लोग भी मुनियों के साथ राज सभा में गये हैं अतः कोई भी जैन सेवा में हाजिर नहीं हो सका बस फिर तो देरी ही क्या थी पाध्यायजी बिना आहारपानी किये और बिना बिलम्ब राज सभा में गये मुनियों ने उपाध्यायजी का स्वागत कर आसन दिया उपाध्यायजी ने शास्त्रार्थ की विषय अपने हाथ में ली तो क्षण भर में ही वादी को पराजय कर उस सभा के अन्दर जैनधर्म को विजय पताका फहरा दी इतना ही क्यों पर वहां के राजा प्रजा को जैनधर्म की दीक्षा शिक्षा देकर उन सब को जैन बनाया जिससे वहां का श्रीसंघ बड़ा ही प्रसन्न चित्त हो गाजा बाजा और जिनशासन की जयध्वनि के साथ उपाध्यायजी महाराज को उपाश्रय पहुँचाये-उपाध्यायजी महाराज की यह पहला पहल ही विजय थी।
___ उपाध्यायजी क्रमशः विहार करते हुए सूरिजी महाराज के पास आये और सब हाल कहने पर सूरिश्वरजी महाराज बड़े ही प्रसन्न हुए सूरिजी महाराज सर्वत्र विहार कर पुनः मरूधर मैं पधारे और उपाध्याय सोमकलस की इच्छा वीरपुर की स्पर्शना करने की हुइ अतः सूरिजी विहार कर वीरपुर पधारे बस फिरतो कहना ही क्या था एक तो सूरीश्वरजी का पधारना दूसरा उपाध्यायजी इस नगर के राजकुवार थे और लेख पढ़कर एवं विद्वता प्राप्त कर पुनः पधारे अतः जनता के दिल में बड़ा भारी उत्साह था वहां का राजा देवसेनादि श्रीसंघ ने सूरिजी के नगर प्रवेश का अच्छा महोत्सव किया और श्रीसंघ की अाग्रह विनति से सूरिजी एवं उपाध्यायजी महाराज ने वह चतुर्मास वीरपुर में करने का निश्चय करलिया आपके चतुर्मास से वहां की जनता को बहुत लाभ हुआ आचार्यरत्नप्रभसूरिने उपाध्याय सोमकलस को सूरिमंत्र की आराधना करवा कर राजा देवसेन के बड़ाभारी महोत्सव के साथ उपाध्याय सोमकलस को सूरि पद से भूषीत कर आपका नाम यक्षदेवसूरि रक्ख दिया इन के अलावा भी कई योग्य मुनियों को पदवियों प्रदान की।
उपकेशगच्छाचार्यों की यह तो एक पद्धति ही बनगई कि जब वे गच्छ नायकसा का भार अपने सिर पर लेते थे तब कम से कम एक बार तो इन सब प्रदेशों में उनका विहार होता ही था। कारण इन प्रदेशों में महाजन संघ-उपकेशवंश के लोग खूब गहरी तादाद में बसते थे और उनके उपदेश के लिये इस गच्छ के अनेकों मुनि एवं साध्विये विहार भी करते थे। फिर भी आचार्यश्री के पधार ने से श्रादवर्ग में उत्साह बढ़ जाता था और मुनिवर्ग की सारसँभाल हो जाती थी । दीर्घकाल सूरिपद पर रहने वाले आचार्य तो इन प्रान्तों में कई बार भ्रमण किया करते थे । पट्टावलियों में तो आचार्य रत्नप्रभसूरीश्वरजी के भ्रमण का हाल बहुत विस्तार से लिखा है पर ग्रन्थ बढ़ जाने के भय से मैंने यहाँ संक्षिप्त से ही लिख दिया है कि आचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी महाप्रभाविक जिनशासन के स्थम्भ एक प्रतिभाशाली प्राचार्य हुये हैं। श्राप अपने ६३ वर्ष के सुदीर्घ शासन में अनेक प्रकार से जैनधर्म की उन्नति कर अपनी धवल कीर्ति को अमर बना गये। और हम लोगों पर इतना उपकार कर गये हैं कि जिसको हम क्षण भर भी नहीं भूल सकते ।
कोरंटगच्छ के प्राचार्य सर्वदेवसूरि जैनधर्म के प्रखर प्रचारक थे । एक समय विहार करते कोरंटपुर पधारे। वहां पर देवी चक्रेश्वरी ने एक समय रात्रि में सूरिजी से अर्ज की हे प्रभों ! आपका आयुष्य अब बहुत कम है श्राप किसी योग्य शिष्य को सूरिपद देकर अपने पहपर प्राचार्य बना दीजिये । सूरिजी ने कहा देवीजी ठीक है मैं समय पाकर ऐसा ही करूंगा। प्राचार्य श्री ने विचार ही विचार में कई अर्सा निकाल दिया और अकस्मात एक ही दिन में आपका शरीर छुट गया कि वे अपने हाथों से प्राचार्य नहीं कोरंटपुर में आचार्य पद ] For Private & Personal use only
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