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________________ वि० सं० ११५ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास सोनलदेवी जैनधर्म की पक्की श्राविका थी उसने अपने श्वसुराल में जैनधर्म का प्रभाव को अच्छी तरह से कैला दिया था आचार्य रत्नप्रभसूरिजी उस सोनलदेवी की विनती से ही पधारे थे जब सोनलदेवी कों मालूम हुआ कि आचार्य रत्नप्रभसूरि पधार रहे हैं तो उसने गुरु महाराज के स्वागत की अच्छी तैयारी की तथा वहां के श्रीसंघ ने भी सूरि जी महाराज का सुन्दर स्वागत किया और सूरिजी को नगर प्रवेश करवाये। सरिजी का व्याख्यान सदा हुआ करता था आपका उपदेश में न जाने ऐसा कोई जादू था कि वहां के राजकुँवार वीरसेनादि बहुत से नर नारियों को जैनधर्म की दीक्षा देकर उन सब का उद्धार किया। राज. कुँवार वीरसेन को दीक्षा देकर सूरिजी ने उनका नाम मुनि सोमकलास रखा था मुनि शोमकलस दीक्षा लेते ही ज्ञानाभ्यास करने में लग गया मुनि सोमकलस ने पूर्व जन्म में उम्वल भावों से ज्ञानपद एवं सरस्वती की आराधना की थी कि थोड़ा ही समय में विद्वान बन गया अतः सूरिजी ने सोमकलस को उपाध्याय पद से विभूषित कर दिया। उपाध्याय सोमकलस का व्याख्यान बड़ा ही मधुर रोचक और युक्ति पुरसर था कि सुनने वालों पर बड़ा ही प्रभाव पड़ता था इतना होने पर भी उपाध्यायजी गुरुकुलवास से दूर रहना नहीं चाहते थे एक समय सूरिजी ने सिन्ध प्रान्त में विहार किया रास्ता में छोटे छोटे गांव आने के कारण उपाध्याय सोमकलस को कई साधुओं के साथ अलग बिहार करवाया अतः उपाध्यायनी एक दिन विहार कर पड़सोली ग्राम जा रहे थे परन्तु ग्राम में नहीं पहुँचने पहले ही सूर्य अस्त हो गया अतः साधु वृक्षों के नीचे ठहर गये उपाध्याय जी पास ही में निर्जीव भूमिका देखी तो वहां ठहर गये परन्तु वहां थे श्मशान रात्रि समय जब आप ध्यानास्थित थे तो एक देवी महा भयंकर रूप बना कर उपाध्यायजी के पास आई और मारी क्रोध के कई उपद्रव करने शुरू किये पर उपाध्यायजी थे वीर क्षत्री वे अपने ध्यान से तनक भी क्षोभ न पाये-अतः देवी हताश होकर एक सुन्दर देवांगना का रूप बना कर अनुकूल उपसर्ग देने लगी फिर भी आप तो मेरु पर्वत की भांति अडिग ही रहे आखिर देवी अपने जितने उपाय थे सब के सब आजमाइश कर लिये पर वीर उपाध्यायकी मनसा से भी चलायमान नहीं हुए। इस सहनशीलता को देख देवी प्रसन्न होकर अर्ज की कि हे प्रभो ! मैंने अज्ञानवश आपको कई प्रकार से उपसर्ग किया उसकी तो आप क्षमा करें और मैं आज से आपकी किंकरी हूँ जिस समय आप याद फरमावे उसी समय मैं सेवा में हाजिर होकरश्रापका कार्य करने की प्रतिज्ञा करती हूँ। कृपा कर मेरी इस प्रार्थना को स्वीकार करावे उपाध्यायजी ने अपना ध्यान पार कर कहा देवी हम साधु लोग तो उपसर्ग एवं परिसह सहन करने के लिए ही साधु हुए हैं इससे मेरी दृष्टि से तो आपका कोई अपराध नहीं हुआ है कि जिसकी मैं आपको माफी दू दूसरा आपने प्रतिज्ञा की यह अच्छी ही है पर हम साधु लोगों के क्या काम होता है कि आपसे करावें हाँ, शासन कार्य के लिये क्या आप और क्या मैं अपना कर्तव्य ही समझते हैं पूर्व जमाना में आचार्य रत्नप्रभसूरि के कार्य में साच्चायिका देवी और श्राचार्य यक्षदेवसूरि के कार्य में मातुलादेवी सहायक पन शासन के कार्य में मदद पहुँचाई है अाप भी उनका अनुकरण कीजिये । देवी ने तयाऽस्तु कह कर उपाध्यायजी को 'वादविजयता' वरदान देकर उपाध्यायजी को वन्दन कर अपने स्थान पर चली गई। सुबह उपाध्यायजी अपने मुनियों के साथ विहार कर पाड़सोला होकर तीतरपुर पधारे वहां जैनों की काफी पसती होने पर भी किसी जैन को नहीं देखा नगर में जाने पर उपाध्यायनी महाराज को मारम हुमा कि Jain Edgecenternational For Private & Personal use only [ वीर उपाध्यायजी और देवी ... For Private & Personal Use Only sarv.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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