SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 698
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५ बुलाया और पूछा कि तुम्हारा इंसाफ हो गया ? दोनों ने कहा कि अच्छी तरह से यानी व्यवहारवादी बोला कि मेरा व्यवहार ही प्रधान है कि दोनों के प्राण बचाये । निश्चयवादी ने कहा मेरा निश्चय ही प्रधान है कि अमूल्य रत्न हाथ लग गया। इस पर प्रधान ने कहा कि तुम दोनों मिलकर चलोगे तो ही फल प्राप्त होगा । यदि उधम न करता तो भोजन एवं रत्न कहां से मिलता, फिर भी व्यवहार का फल केवल लड्डू और जल जितना ही था, पर निश्चय का फल रत्न तुल्य है । अतः निश्चय को प्रगट करने के लिये व्यवहार को उपादेय माना करो। दोनों मंजूर कर अपने में स्थान चले गये। सूरिजी महाराज के उदाहरण ने पृच्छक पर ही नहीं पर आम सभा पर भी बड़ा भारी प्रभाव डाला और स्याद्वाद पर जनता की विशेष श्रद्धा अम गई । समय परिवर्तनशील है। पूर्व जमाने में निश्चय को मुख्य और व्यवहार को गौण समझा जाता था । उस समय दुनियां को इतना सोच फिक्र एवं आर्तध्यान नहीं था । अर्थात् कुछ भी हानि लाभ होता तो भी इतना हर्ष शोक नहीं होता था कारण वे जान जाते थे कि निश्चय से ऐसा ही होने वाला था पर जब से निश्चय को गौण और व्यवहार को मुख्य माना जाने लगा तब से जनता में सोच फिक्र और आर्तध्यान बढ़ने लग गया । कारण जिस सुख दुख का कारण कर्म समझा जाता था उसके बदले व्यक्ति को समझा जाने लगा । इससे ही आपसी राग-द्वेष वैर-विरोध को वृद्धि हुई है अतः जैनधर्म के सिद्धान्त के जानने बालों को निश्चय को प्रधान और व्यवहार को गौण की मान्यता रखनी चाहिये संचित कर्म समझ समभाव से भोग लेवे । अतः निश्चय पर अडिग रहना चाहिये । सुख दुख को पूर्व आचार्य रत्नप्रभसूरि ने प्रथम रत्नप्रभसूरि की तरह कई मांस मदिरा सेवियों को जैनधर्म में दीक्षित किये। कई मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई। कई बार तीर्थों की यात्रा निमित्त संघ निकलवाये । कई बादी प्रतिवादियों के साथ शास्त्रार्थ कर जैनधर्म की विजय वैजंती ध्वजा फहराई और अनेक मुमुक्षुत्रों को दीक्षा दे श्रमण संघ में वृद्धि की । सिन्ध भूमि उस समय उपकेशगच्छजचार्यों की एक बिहार भूमि थी । वहां से पंजाब भूमि में पधार कर अपने साधुओं की सार-संभाल की और दीर्घ समय से वहां जैनधर्म के प्रचारार्थ किये हुये कार्यों की सराहना कर उनके उत्साह को बढ़ाया। सावत्थनगरी में महामहोत्सवपूर्वक कई योग्य मुनियों को पदस्थ बनाये वहां से तक्षिलादि नगरों में बिहार किया और शालीपुर के मंत्री महादेव के संघ के साथ सम्मेतशिखरजी की तीर्थों की यात्रा की और राजगृह चम्पा भद्दलपुर पावापुरी काकंदी विशालादि पूर्व की यात्रा करते हुए कलिंग में पधारे कुँवार कुँवारी वगैरह क्षेत्रों की स्पर्शनाकर श्रावंती मेदपाट में धर्मोपदेश करते हुये पुनः मरुधर की ओर पधारे। आचार्य रत्नप्रभसूरि मरुधर में विहार करते हुए एक समय वीरपुर नगर की ओर पधारे वीरपुर में नास्तिक वाममार्गियों का खूब अड्डा जमा हुआ था वहां का राजा वीरधवल उन नास्तिकों को मानने वाला था यथा राजास्तथा प्रजा १ इस युक्ति अनुसार नगर के बहुत लोग उन पाखण्डियों के भक्त थे । श्राचार्य रत्नप्रभसूरि ( प्रथम ) श्रादि श्राचार्यों ने वाममार्गियों के मिथ्या धर्म का उन्मूलन कर दिया था पर फिर भी ऐसे श्रज्ञात नगरों में उन लोगों के अखाड़े थोड़ा बहुत प्रमाण में रह भी गये थे पर उनके लिए भी जैनाचाय का खूब जोरों से प्रयत्न था । और इस लिये ही सूरिजी का पधारना हुआ था । वीरपुर के राजा का कुँवर वीरसेन की शादी उपकेशपुर की राजकन्या सोनलदेवी के साथ हुई थी Jain E सूरिजी बीरपुर नगर में ] For Private & Personal Use Only www.grary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy