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________________ वि० सं० १९९-२१८ वर्ष 1 जसा तथास्तु | जसा ने मंदिरजी के पास एक और औषधशाला और दूसरी और एक ज्ञान भंडार बनाने का निश्चय कर लिया । और उसी समय कार्य प्रारंभ कर दोनों स्थान तैयार करवा दिये [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्पराका इतिहास सूरिजी ने एक दिन अपने व्याख्यान में षद्रव्य का वर्णन करते हुये काल द्रव्य का इस खूबी के साथ व्याख्यान दिया कि संसार के जीवाजीव जितने पदार्थ हैं उन सब पर काल की धाक है । काल सब की अवधि को पूर्ण कर देता है । देवता कब चाहते हैं कि हमारे सुखों की अवधि पूर्ण हो जाय, एल्योपम और रोम की स्थिति भी क्षय हो जाती है तब अस्थिर काल की स्थिति वाले मनुष्य का तो कहना ही क्या है । धन, कुटुम्ब, मान, प्रतिष्ठा और लक्ष्मी की भी अवधि हुआ करती है । उस अवधि के अन्दर ही मनुष्य कुछ कर लेते हैं तो हो सकता है वरना पछताने के सिवाय और क्या हाथ लगता है इत्यादि । शाह जसा सूरिजी के उपदेश से सावधान हो गया और सोचा कि मेरे पास में पारस है पर इसकी भी तो अवधि होगी। इसके चले जाने पर तो मेरी वही स्थिति रहेगी जो पहले थी । अतः इसके अस्तित्व मुझे इसका सदुपयोग कर लेना चाहिये । सब से पहिले तो मंदिरजी की प्रतिष्ठा करवाने का कार्य मेरे है इसको शीघ्र ही कर लेना चाहिये । शाह जसा ने इस प्रतिष्ठा के कार्य में लोहे की जगह सोने से काम लेना शुरू किया। प्रतिष्ठा पर पधारने वाले साधर्मि भाइयों के लिये सोने के थाल और कंठिय तैयार करवाये जिसके पास खास पारस है वह क्या नहीं कर सकता है । शाह जसा ने इस प्रतिष्ठा के लिए बड़ी २ तैयारियें करनी शुरू करदीं और दूर दूर आमंत्रण पत्रकायें भेज कर स्वधर्मी भाइयों को बुलवाये। इधर जिन मंदिरों में अष्टान्हिक महोत्सव प्रारम्भ हो गया । उधर सूरिजी महाराज ने उन नूतन मूर्तियों की अंजनसिलाका कार्य प्रारम्भ करवा दिया। सुवर्णमय मूर्ति के नेत्रों के साथ ऐसी मणिये लगवाई गई कि रात्रि में दीपक की आवश्यकता नहीं रहती थी । प्रतिष्ठा के समय केवल श्रावर्ग ही नहीं आये थे पर हजारों साधु साध्वियां दूर दूर से पधारे थे कई राजा महाराज भी आये थे और श्रावकों की तो गिनती ही नहीं थी । फाल्गुण एक पट्टावली में इस प्रतिष्ठा का समय माघ शुक्ला १३ का लिखा है तब प्रबन्धकार शुक्ल सप्तमी का लिखा है । शायद मूर्तियों की अंजनसिलाका माघ शुक्ल १३ की हुई हो और मंदिरजी की प्रतिष्ठा फाल्गुण शुक्ल सप्तमी की हुई हो और यह बात संभव भी हो सकती है क्योंकि इतना बड़ा महोत्सव पच्चीस दिन रहा हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है । या दोनों काय्यों का मुहूर्त अलग २ हो ? शुभ मुहूर्त में शाह जसा और सेठानी पतोली ने भगवान महावीर की सुवर्णमय मूर्ति अपने हाथों स्थापित की। मंदिरजी पर सुवर्ण कलस अपने पुत्र राणा जो एक नवजात बालक था के हाथ से स्थापित कराया । पट्टावलीकार लिखते हैं कि उस समय सुमधुर वायु और थोड़ा सा जल तथा श्राकाश से पुष्पों की वर्षा हुई थी । ऐसे पुन्य काययों में देवता कब पीछे रहने वाले थे वे भी तो इस प्रकार का लाभ उठावें इसमें आश्चर्य ही क्या ? जसा के अन्य पुत्रादि कुटुम्ब वालों ने दंड ध्वज तथा अन्य मूर्तियाँ स्थापन कर लाभ • हासिल किया और आचार्य कक्कसूरि ने सत्र के उपर वासक्षेप डाला । -- पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्य मुहूर्त की शुरुआत से ही हो रहा था पर महोत्सव के अंत में स्वधर्मी ६१६ Jain Education international [ शाह जसा के कराये मन्दिर की प्रतिष्ठy.org For Private & Personal Us
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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