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आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ५९९-६१८
भाइयों को सोने के थाल एवं सोना की कंटियों और वस्त्रों की पहरावणी दी तथा याचकों को एक एक सौ सुवर्ण मुद्रिकाएँ एवं वस्त्र भूषण आदि बहुत सा धन माल देकर जसा ने अपने यशः को अमर बना दिया ।
__ इस सुअवसर पर आचार्य कक्कसरि ने आये हुये साधुओं में जो पदवियों योग्य थे उनको पदवियें प्रदान कर जैनशासन की बड़ी भारी उन्नति की इतना ही क्यों पर हंसावली के राजा रामदेव पर भी सूरिजी का बड़ा भारी प्रभाव पड़ा कि उसने स्वयं मंस मदिरा का त्याग कर अपने राज में किसी निरपराधी जीव को नहीं मारने की उद्घोषणा कर दी "यथा राजा तथा प्रजा" इस महा वाक्यानुसार अन्य भी बहुत से लोगों ने मांस मदिरादि मिथ्यात्व का त्याग कर अहिंसाधर्म को स्वीकार किया।
अहा हा ! पूर्व जमाने में साधु और श्रावकों की धर्म पर कैसी अटूट श्रद्धा थी और वे दोनों एक दिल हो जैन धर्म की उन्नति एवं जैनधर्म का किस प्रकार प्रचार करते थे जिसका यह एक उज्वल उदाहरण है। प्राचार्य शासन के शुभचिंतक थे तब श्रावक लोग आचार्यों का आशीर्वाद लेना चाहते थे। भले ही आचार्य मुँह से आशीर्वाद शब्द का उच्चारण नहीं करते होंगे पर उनकी आज्ञा का पालन करने से तथा उनकी इच्छानुसार कार्य करने से उनकी अन्तरात्मा स्वयं आशीर्वाद दे दिया करती थी।
आज हम देखते हैं कि शायद ही कोई प्रतिष्ठा निर्विघ्नतया समाप्त होती हो कारण पहिले तो प्राचार्य को नाम का हो चाहे काम का हो पर स्वार्थ अवश्य रहता है जब श्रावक भी ऐसे ही होते हैं कि अपना काम निकल जाने पर प्राचार्यों को पूछते ही नहीं हैं कि वे कहां बसते हैं दोनों ओर स्वार्थ का साम्राज्य जमा हुआ हैं अर्थात जहां स्वार्थ होता है वहां स्नेह ठहर ही नहीं सकता है।
शाह जसा ने सूरिजी महाराज की खूब भक्ति कर लाभ उठाया श्रीभगवतीजी सूत्र बचाया और नूतन मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई और इन दोनों कार्यों से जैन धर्म की प्रभावना भी अच्छी हुई तत्पश्चात सूरिजी महाराज हंसावली नगरी से विहार कर अन्य प्रदेश में पधार गये । शाह जसा ने कई कोसों तक सूरिजी महाराज के विहार में साथ में रह कर भक्ति की, सच्ची भक्ती इसका ही नाम है । शाह जसा बड़ा ही भाग्यशाली था। आपके गृहदेवी पातोली और लघुपुत्र गणा तो दो कदम आगे थे
जैसे आज श्रावकों के नाम पर्वतसिंह, पहाड़सिंह, जोधसिंह, सबलसिंह, शादूलसिंह, उमरावसिंह घगैरह होते हैं वैसे नाम पहिले श्रावकों के नहीं होते थे हाँ उनके नाम दो तीन अक्षरों के ही होते थे किन्तु वे लोग काम आज के श्रावकों से कई गुणे अधिक करते थे देखिये
सेठानी पातोली ने श्री भगवती सूत्र बँचाया जिसमें करीबन एक करोड़ द्रव्य ज्ञान खाते में व्यय किया । हंसावली के बाहर एक सरोवर-तालाब बनाया जिसमें एक करोड़ द्रव्य नर्च किया जब शाह जसा ने मन्दिर और मूर्तियों के निमित्त एक करोड़ क्या ही क्यों कई करोड़ द्रव्य शुभ क्षेत्र में व्यय कर दिया और केवल एक हंसाबलि का श्रेष्ठवय जसा ही नहीं पर ऐले अनेक दानेश्वरों ने जिन मन्दिरों से मेदनी मण्डित करदी थी परंतु कालांतर धर्मान्ध म्लेच्छों के आक्रमण से वे सब मन्दिर बच नहीं सके । इसका मुख्य कारण एक तो धर्मान्धता थी और दूसरे पहिले जमाने में प्रतिष्ठा के समय मूर्ति के नीचे गुप भंडारा रखा जाता था और उसमें श्रीसंध पुष्कल द्रव्य डाल देते थे शायद उनका आशय तो कभी जीर्णोद्धार में वह द्रव्य काम आने का ही होगा परन्तु परिणाम कुछ उलटा ही हुआ कि उस द्रव्य के लोभ से वे लोग मन्दिर तोड़ डालते थे। यही कारण है कि आज प्राचीन मंदिर बहुत कम नजर आते हैं। प्राचीन ग्रन्थों से पाया जाता है कि
आचार्य श्री कक्कमरि और भक्त जसा ].
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