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वि० सं० १९९-२१८ वर्ष
। भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
कुभारिया ( कुतिनगरी ) में एक समय तीन सौ मंदिर थे। चंद्रावती ( आबू के पास ) , ३६० मंदिर थे। पद्मावती ( पुष्कर ) में पाँच सौ जैन मंदिर थे। तक्षिला में पाँच सौ मंदिर थे पाहण में ६०७ मंदिर थे। उपकेशपुर में १०० मंदिर तो बारहवी शताब्दी में थे इसके पूर्व कितने ही होंगे इत्यादि प्रत्येक नगर में इस प्रकार मंदिरों की विशाल संख्या थी । जब आज विक्रम की दशवों ग्यारहवीं शताब्दी के भी बहुत कम मंदिर मिलते हैं। हाँ सम्राट सम्प्रति के बनाये लाखों मंदिरों से कोई २ मंदिर एवं मूर्तियाँ अवश्य मिलती हैं खैर कुछ भी हो पर मंदिर मूर्तियें बनाने वालों ने तो अपनी उज्जल भावना से पुंज्योपार्जन कर ही लिया था।
शाह जसा के करने योग्य कार्य में अब केवल एक तीर्थ यात्रा निमित्त संघ निकालना ही शेष रह गया था। उसके लिये श्रेष्ठवयं हर समय भावना रखता था कि कब मुझे समय मिले और कब मैं अपने मनोरथ को सफल बनाऊँ। सेठानी की भी यही भावना थी और इस वात की चर्चा भी होती थी
शाह जसा ने अपने पास के पारस को पूँजियों की लक्ष्मी की तरह भंडारी नहीं रख छोड़ा था पर उसका हमेशा सदुपयोग करता था। हंसावली का तो क्या पर कोई भी साधर्मी भाई शाह जसा के घर पर आ निकलता तो वह रीते हाथ कभी नहीं जाता था पर उस समय ऐसे लोग थे भी बहुत कम जो दूसरों की आसा पर जीवें । फिर भी काल दुकाल या म्लेच्छों के आक्रमण समय जसा याद आ ही जाता
कभी २ शाहजसा स्वामीवात्सल्य करता था तो एक दो दिन का नहीं पर लगातार मार दो मास तक स्वामी वात्सल्य किया ही करता था। जिन मन्दिरों की भक्ति तो बारह मास चलती ही रहती थी तमाम खर्चा शाह जसा की ओर से होता था। इस प्रकार जसा का यश सर्वत्र फैल गश था .....।
___ मरुधर में कभी २ छोटा बड़ा दुकाल भी पड़ा करता था । शाह जसा के और दुकाल के ऐसी ही अनबन थी कि वह अपने देश में दुकाल का आना तो क्या पर पैर भी नहीं रखने देता था। केवल एक अपना देश ( मरुधर ) ही क्यों पर शाह जसा तो भारत के किसी देश में काल का नाम सुन लेता तो हाथ में लकड़ी लक्ष्मी ) लेकर उसको शीघ्र ही वहाँ से भगा देता था धन्य है ऐसे नर रत्नों को कि जिन्होंने संसार में जन्म लेकर जैन धर्म की बड़ी २ सेवायें कर उसको उन्नति के शिखर पर पहुँचा दिया।
प्राचार्य कक्कसूरीश्वरजी महाराज जैन धर्म में अद्वितीय प्रभाविक थे। एक प्रांत में नहीं पर वे प्रत्येक प्रांत में घूम २ कर जैन धर्म का खूब प्रचार किया करते थे । हंसावली में मंदिर की प्रतिष्टा करवाने के बाद आपने देशटन के लिये विहार कर दिया । लाट सौराष्ट्र , कच्छ, सिन्ध, पंजाब, सौरसेन, मच्छादि प्रान्तों में घूमने में कम से कम दस वर्ष तो लग ही जाते थे और उपकेश च्छाचारयों की यह एक पद्धति थी कि सूरी पद पर प्रतिष्ठत होने के बाद कम से कम एक बार तो इन प्रांतों में वे अवश्य भ्रमण किया करते थे ।
इधर शाह जसा अपनी धर्मपत्नी पातोली के साथ आत्मकल्याणर्थ धर्म कार्य साधन करने में संलग्न थे। पातोली का पुत्र राणा क्रमशः बड़ा हो रहा था। उसके माता-पिता की धार्मिकता का प्रभाव उस पर पड़ता ही था। ज्ञानाभ्यास में उसकी अधिक रुचि एव सरस्वती की कृपा थी। उसने श्रावक के करने योग्य क्रिया-सामयिक प्रतिक्रमण देववन्दनादि सब क्रियायें तथा नौ तत्त्व कर्म ग्रन्थादि कंठस्थ कर लिया था। जब राणा करीब १२ वर्ष का हुआ तो एक समय उसके माता पिता बातें कर रहे थे कि जैन गृहस्थों के करने काबिल दो कार्य तो कर लिये अर्थात श्री भगवती सूत्र को बचाना और जैन मंदिर की प्रतिष्ठा करवाना पर एक कार्य तीर्थयात्रार्थ संघ निकालना शेष रहा है। अगर गुरु महाराज का पधारना हो जाय तो इस को भी शीघ्र कर लिया जाय इत्यादि
६१. Jain El Cacon International
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